पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/११३

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८५ बिरहबारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। बोधाइतै सुखपैनरमै उतकारो सारो रूपसिहाती ॥ यारकेसाथ पयार बिछायके डीमनमें नितखेलनजाती॥ बरवा। पियके साथ घबराहट चढ़तीरोइ । जारसाथ जद होवे बड़सुख होय ॥ स. कंपतगात बतातसकातहै सारी खोरिनवौ अँधियारी। पातहू केखरके छरके घरके उरलाइ रही सुकुमारी ॥ कीच के बीच रचै रस रीत मनौ युगजात चक्यो तिहि वारी । योंजगके लिकरै जग में नरधन्यवहै धनिहै वह नारी॥ सो. जियैवर्ष दशपांच रहै सहितमन भावती। नचेविरहरस नाच बहुत जिये किहि काजते । जो विशेषजग माहि एक बेर मरने परै। तो हित तजिये नाहिं इश्क सहित मरि बोभलो।। चौ० इहिविधिनिजजियकोसमझावै। माधोचल्योपंथमें आवै ।। सुमिरि घीक कंदला प्यारी । घरि इकलीलावति सुकुमारी ॥ कहौ प्रवीन करौं अब कैसी। इश्क फॅदी मनप्रकृति अनैसी।। प्रिय बिछुरे सब ठऔर अनेसा। जैसा घर छिवलेतर तैसा॥ अब मैं जाय कहाँ किहि सेती। को सहाय करिहै मो येती ।। बीती हेम शिशिर ऋतु दोई । बिरह बेदना घटत न कोई ॥ अव बसंत ऋतु आवत तैसे । सन्निपात बिरहिनि को जैसे ॥ कौन उपाय जियत जगरहौं । कैसे फिर कामावति ऐहौं । दो० सुनरमाधो केवचन गनिर सुवा प्रवीण। कह्यो विप्र उज्जैन चल राजा परम प्रवीण ।। छंदसुमुखी। विक्रम सेन नृपति उज्जैन। परदुख देख सकत नहिं नैन ॥ जाके राज बेद बखान । गोदिजदीनको सन्मान । आगम निगम नित्त विवेक । चितधर तजत नाहीं टेक ॥ रीझे करत दारिद दूर । खीजै तौ उपारै मूर ॥ छलबल बुद्धित्यागस मस्त । को जग करत तासों हस्त ॥ बल कर बचै ना पुनिसोय। यद्यपि भानुको सुत होय ॥