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पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/१४२

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११४ बिरहबारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। प्रान बोधासुकवि राजनीति मत साखिये । सुयश एककी काच लीसर्वस तजत न राखिये ॥ राजाबचन दो० धन बिछुरै धन फिरमिलै तन बिछुरैतन त्याग । विछुरा जोई ना मिलै सुयशपने को यार ।। चौ० मंत्रीकहें नृपति सोंयेही । हौनिश्चय तुमदीन सनेही॥ अपनी मौत मरोडिज माधौ । होनहार को करियेकाधौ ॥ यामें अयशन तुमको होई । कालहि जीत सक्यो नहिकोई ।। मरिको गयो मरेके साथ । तब बोल्यो विक्रमनरनाथ ॥ दो० अमर होव संसार में तो मरगयो अकाज। एकबेर मरनेपरै तो मरिबो शुभअाज ॥ दंडक । निमिष में वषमें चौकड़ी मन्वन्तरमें कल्प प्रलयमेंज बावैगी जिसीगली । संधिपाय सबको चबाय लेहैबोधाकवि वौपारन संहारनवही छली। तीनों लोक तीनोंगुण पांचो तत्व सृष्टिवान काहु को न छोड़ है अदृष्टिसवते बली। त्रिगुणी बचै- न और जिउकी कहानी कौन देवी की मारी तो पुजेरी की क- हाचली॥ दो० एकरमरने परै बोधा यह संसार । तो जैसे दशदिन जिये तैसे बर्षहजार ॥ चौ जोमें इनके साथ न मरिहीं।तो अबराज कितेदिन करिहों। यों कहि भूप उठोकरि त्यारी। पगिया मेल भूमि पर डारी॥ छंदमोतीदाम । भयोदलमें अति दीरघ शोर । सुन्यो नृपबि- क्रम को हठिघोर ॥ रहीन रंचककेहू संभार । चल्यो नृपकालहु से करि रार॥धरौघन नायक कारिन चोभ । लख्यो नृपविक्रम कोसत सोम ॥ लगे नर ढोवन चन्दन काठ । कियो नृपकाज चिता कर ठाठ ।। सुगंधतही त्रिविधा कर लाय । चिता धरदेहु सुगंध सनाय।।विमानन छायरह्यो असमान । सती लखि विक्रमर