पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/३७

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बिरहवारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा । करुणाकरती दमको भरतीं। अति धीरन बीरन क्योंकरती ॥ दो। धौं अनेक थल एकही हरिगुण कथा प्रवीन । मुरली विरह दवागि सों कर उरमी सुरमीन ॥ त्रोटकछंद । सुरझी फिरना उरझी जबते। हरिही अनुरागरही जियते ॥ विलखें सिगरी न लखें पियको । कलतलन लखें पियको ॥ हरिहो हरिहो हरिहो रटतीं। दम ऊरधलै दमसी भर- तीं। निशि बासखो करुणा करती। मर्छालहि हाकहि भूपर- ती ॥ कबहूं बनकुंजनमें बिहरें । लखि कलि सहेठ बिलापकरें ।। कबहूँ गज झंडन दाखहँसें । हरिज बिनको बनमाहिबसें ॥ दो० । सुनहु भोज ब्रजराजकी संखी तीनबिधि जान। प्रथम सावकी राजसी फिरतामसी बखान । (सात्वकीन सखिन के बचन दंडकमें) कंतसों न मंत और गेहसों न नेह कछु सुत सों नसुत रह्यो ज्ञान कोनगाग्योहै। पानसोन प्रीति लोकरीतिकी प्रतीति नाहीं पानी पनाह कछू सुख में न सारयो है॥ वेदसों न भेद लहै भा- भी को भरोसो कौन दुःखकोन दोष बुद्धिसेनयों विचारयो है। (राजसीन सखिनके बचन दंडकमें) जिनपै सयानी वारी लालगृहकाज त्रास सासको न मान्यो औरकोऊ कावखोड़िहैं। जिनपै हुलासवो बिलासपतिवारवारे थकी ब्रजवासिने चरित्र केते जोडिहें ॥बोधाकवि तिनहूं जो ऐसीरीति कीन्हीतौ का हमहूं उनसीहू हैं और ऐमी प्रीति तोड़िहैं । नेकी बदी वोड़िहैं बिपति बरुगोड़ि हैं जो कान्ह हमैं छोड़िहें तो हमतो न छोड़िहें। दो० । सुनी निबाहत जगतमें बाह गहेकी लाज। सकुचनकीन्ही अंकभरि हमैंतजत ब्रजराज ॥ (तामसीनके बचन सवैयामें) हमतो तुम्हेंचाहि के याजगको उपहाससयो अश्का- समहा। पुनिपापउ पुण्य विचारयो नहीं परलोक काहू लोककी