पृष्ठ:बिरहवारीश माधवानलकामकंदला.djvu/७८

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विरहवारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। नृपरोगी परजानिधन गुनी बियोगी होय ॥ चौ० इहिविधिमासअसाढवितायो । चलिसुभानतबसावनआयो संयोगी बिरही नर योगी । इहि सावन सब होत बियोगी॥ छंदमोतीदाम । लग्यो तस्तावन सावन मास । प्रजारतिकै मकुसुंभिय बास ॥ चलै बदरा मढि गर्जत नील । मनौ मदन दल साजत पील ॥ बड़ी सरिता नव यौवनरूप । निहारत या रहि ते तनतूप ॥ करै बिरही पिक चातक शोर । चलै श्रविधा लखिपवन झकोर ॥ सदा सुखदायक जे लखि बीर । भये इहि श्रावन दावनगीर ॥ कॅपै मनबधू लखै न उपाय । मनौ बिरही तनशोणित प्राय ॥ हनै शरपंच गहै कर काम । कस्यो विरही मोहिं श्रावन राम ॥ नहींदिल इश्क देखत कोइ । कहाँ अपनो दुख का सँग रोइ ॥ हती इक कामिनि तीर तड़ाग। सुन्यो ति- हिमाधो को अनुराग॥कहै वह बालअहे द्विजदेव । कछु कहि- हो अपनो निज भेव ॥ भयो जिहि कारण छिन्न शरीर । कहाँ अपने तनकी यहपीर ॥ करों पलमें तुव बेदन दूर । बताबहु हाल सजीवन मूल ॥ तिहि दियो तब माधवा उत्तरवेश । नहीं वह औषध है यह देश॥ लगीचितकी हितकी यह जान । कहै सबरोगहि योग बखान ॥ स० । दूरहै मूर अपूरबसों शशि सूरजहो कविहोकि निहारी। अंदर बेली नवेलीअवै कहि कैसे मिले बिन योग दिवारी॥ बोधा लुनाहै सुभान नहींत करि कोटिउपाय थको उपचारी। पीर हमारे दिलन्दर की हमजानत हैं वह जाननहारी।। सो० फिरबोली वह बाल है कैसो तेरो हितू। सहियत बिरहकरालजाके हितनचेतिजित ॥ दंडक । पगन परीरी प्रानकाहूसोंपगैजो चूरहोतमगरूरीही मंगरूरपै जगीर पै जगीरहै । हेरन हँसन बतरबे को कौन स्वाद उनमादनते और पीर तनमें पगीरहे ।बोधाकविजोहे मेरो हितू के सुहाती जीवताही में खगो रहै सोई जीमें खगी रहै । कैसी