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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका के ओठ पर नायक के दाँत का चिह्न लगा हुआ है । उसे वह, अंचल को किसी व्याज से ओठ पर ला कर, छिपाती है, पर सखी उस चिह्न को लक्षित कर के, परिहास करती हुई, कहती है | ( अर्थ )-रदच्छद ( ओठ ) पर हद्द की ( परम ) छवि देती हुई यह 'सद' ( सद्यः, टटकी ) दाँतों के घाव की रेखा पट की ढिग ( छोर, किनार ) से क्यों छिपाई जाती है । ( यह तो ] सुभग [ तथा ] सुंदर रूप से शोभित है ॥ नाह गरज नाहरगरज, बोलु सुनायौ टेरि ।। हँसी फौज मैं बंदि-बिच हँसी मबनु तनु हेरि ॥ २१५ ॥ नाहर-गरज=सिंह के गर्जन ॥ बोलु =शब्द, बोली ॥ टेरिबललकार कर ॥ ( अवतरण )--यह दोहा रुक्मिणी-हरण के समय का है । रुक्मिणीजी सेना के बीच मैं भी भाँति रक्षित हैं। इतने ही मैं श्रीकृष्णचंद्र ने आ कर और सिंह की भाँति गरज कर अपना बोल सुनाया । उसे सुन कर रुक्मिणीजी ने सब की ओर देख कर उपहास किया कि देखें, अब ये लोग मुझे क्याँकर बचाते हैं । ( अर्थ )–नाह ( नाथ, स्वामी अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र ) ने सिंह की ( सिंह की सी ) गरज गरज कर । अपना ] बोल टेर ( ललकार ) कर सुनाया । [ उसे सुन कर श्रीकृष्णचंद्र को पहुँच जाना जान] सेना में बंद ( कैद, घेरे ) के बीच फंसी हुई (विवश ) [ रुक्मिणीजी ] सब की ओर देख कर [ व्यंग्य से ] हँस पड़ीं ॥ बाल-बेलि सूखी सुखद इहिँ रूखीरुख-घाम ।। फेरि डहडही कीजियै सुरस सचि, घनस्याम ।। २१६ ॥ रुख = चेष्टा । इस शब्द के लिंग इत्यादि के विषय में २४३ अंक के दोहे की टीका द्रष्टव्य है ॥ ( अवतरण )-कलहांतरिता नायिका की सखी की उक्ति मानी नायक से ( अर्थ )- आपकी ] इस रूखी चेष्टा-रूपी घाम से [ वह ] बाला-रुपी सुखद वेल सूख गई है ( १. क्षीण तथा हतप्रभ हो गई है। २. शुष्क हो गई है )[ अतः ] हे घनश्याम, ( १. श्रीकृष्णचंद्र । २. काले बादल ) [उसे ] सुरस ( १. सुंदर प्रीति अथवा अपनी प्रीति । २. सुंदर जल अथवा अपने जल ) से सींच कर फिर डहडही ( १. प्रसन्न । २. हरीभरी) कीजिए । आँधाई सीसी, सु लखि बिरह-बरनि विललात । बिच हीं सूखि गुलाबु गौ, छीट छैई न गात ।। २१७ ॥ .: १. तिनु ( १ ) १२. कीजिऐ (२), कीजियतु (४) । ३. विमल (४), जनन ( ५ ) । ४. विचि ही ( ५ )। ५. बीटा (५) । ६. झाय ( ५ ) ।