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बिहारी-रत्नाकर बरनि = जलन, तपन । बिललात= विकलता से दीन स्वर में बोलते ॥ गुलाबु=गुलाब-जल ॥ ( अवतरण )-नायिका के विरह-ताप का वर्णन सखी नायक से करती है
( अर्थ )-उसको विरह की जलन से बिललात देख कर [ हम लोगों ने ठंढक पचाने के निमित्त गुलाब-जल की भरी] शीशी [उस पर] आधा दी (ढोली नहीं, प्रत्युत एकाएक उलट दी, जिसमें सब गुलाव-जल एक साथ ही उस पर पड़ जाय, और उसकी ज्वाला वुझे )। [ पर ज्वाला क्या बुझती । वहाँ तो उस गुलाब जल की एक ] छाँट भी [ उसके ] गात्र में नहीं छुई ( एक छाँट भी उसके गात्र तक न पहुँच ). [ सय का सब ] गुलाब-जल [ उसकी विरह-ज्वाला से ] बीच ही में सूख गया ।।
तजी संक, सकुचति न चित बोलत वाकु कुवाकु ।
दिनछिर्नदा छाकी रहति, छुटैतु न छिनु छवि-छाकु ॥ २१८ ॥ योलत = बोलते हुए, बोलते समय ।। बाकु कुबाकु= अकबक, अंडबंड, अर्थात् कुछ का कुछ वचन ।। छिनदा ( क्षणदा ) =रात्रि । छाकी = पिए हुई । छकना वास्तव में पीने को कहते हैं। जैसे उसने जल छक लिया' । पर छकना तथा पीना, दोनों भय पीने के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं। छाक = पिलाई अर्थात् मद्य-पान । यहाँ इसका अर्थ भय-पान का प्रभाव अर्थात् नशा है ।
( अवतरण )—पूर्वानुराग मैं नायिका की जो दशा हो रही है, उसका वर्णन सखियाँ आपस मैं करती हैं ।
( अर्थ )-[ देखो, इसने अब गुरुजनों की ] शंका [ भी ] छोड़ दी है, [ और ] बाक कुबाक ( अंडबंड वचन ) बोलते चित्त में सकुचाती नहीं । दिनरात छकी ( नशे में चूर) रहती है, क्षण मात्र [ भी इसका ] छवि-छाक ( सौंदर्य का नशा अर्थात् नायक का सौंदर्य देख कर जो प्रेम का नशा चढ़ गया है, वह ) छुटता नहीं ॥
फिरि फिरि बूझति, कहि कहा कह्यौ साँवरे गात ।
कहा करत देखे, कहाँ; अली, चली क्या बात ॥ २१ ॥ ( अवतरण )-नायिका नायक का वृत्तांत तूती से बड़ी उत्सुकता-पूर्वक पूछती है। उसके वाक्य से उसकी अत्यंत अभिलाषा लक्षित कर के कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है
( अर्थ )-[ वह ] फिर फिर ( वारंवार ) [ दूती से ] पूछती है कि कह, श्यामगात ( श्रीकृष्णचंद्र ) ने [ तुझसे ] क्या कहा, [ तूने उनको ] क्या करते [ तथा ] कहाँ देखा, [ और] हे सखी, [ मेरी ] वात ( चर्चा ) किस प्रकार चली ( निकली ) ॥
नव नागरितन-मुलुकु लहि जोबन-आमिर-जौर ।
घटि बढ़ि हैं यढ़ि घटि रकम करीं और की और ॥ २२० ॥ १. बोलति ( ४ ) । २. छनदा ( ४ ) । ३. छटतु ( १ ), खरो बिषम ( ५ )।
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