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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रत्नाकर अच्छा अवसर मिला, ] मंगन ( शुभ ) कर के माना, [ और उसका ] मुख [ उत्साह से ] रूप में मंगल [ सा गुलाबी ] हो गया ॥ सोवत, जागत, सुपन-बस, रसे, रिस, चैन, कुचैन । सुरति स्यामघन की, सु रति बिसरें हैं बिसरै न । २२७ ॥ ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका अपनी स्मृति-दशा सखी से कहती है ( अर्थ )-सोते, जागते. स्वप्न देखते, रस में ( सरसता से कोई काम करते ), रिस में (रोष से कुछ कहते या करते ), चैन करते, विकल होते [ इन सब दशाओं में से किसी में भी] घनश्याम की [जो ] स्मृति [ है ], सो भूलने से भी (भुलाने से भी) रत्ती भर नहीं भूलती ॥ संगति सुमति न पावहीं परे कुमति कैं धंध ।। राखौ मेलि कपूर मैं, हींग न होई सुगंध ॥ २२८ ।। (अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है-- | ( अर्थ )-कुमति के धंधे ( झंझट ) में पड़े हुए [ लोग अच्छी ] संगति से सुमति नहीं पाते । हाँग को [ कितना ही ] कपूर में मिला कर रक्खो, [ पर वह ] सुगंध (अच्छी गंध वाली ) नहीं होती ॥ बड़े कहावत आप सौं, गरुवे गोपीनाथ । ती बदिहौं, जौ राखिहौ हाथनु लग्वि मनु हाथ ।। २२९ ॥ गरुवे =भारीभरकम, गंभीर, धैर्यवान् ॥ गोपीनाथ = गोपियों के स्वामी । इस शब्द से दूती यह भ्यंजित करती है कि यद्यपि तुम अनेक गोपियों के स्वामी हो, तथापि में जिस नायिका का वर्णन करती हैं, वह कुछ और ही वस्तु है। उसे देख कर तुमको ये सब गोपियाँ भूल जायँगी, और मन अपने वश से निकल जायगा ।। बहिौं = सही समझेगी, तुम्हारा बड़ापन ठीक मानूंगी ।। | ( अवतरण )-सखा अथवा दूत नायिका के हत्थे का सौंदर्य कह कर नायक के चित्त में रुचि उपजाती है ( अर्थ )-हे गरुवे गोपीनाथ, [ तुम ] अपसे ( अपने मन से ) बड़े कहलाते हो। [ पर मैं तो तुम्हारी बड़ाई ] तब मानूंगी, जब [ तुम उसके ] हाथों को देख कर [ अपना ] मन [ अपने ] हाथ में ( वश म ) रक्खोगे [ अर्थात् उसके हाथ ऐसे सुंदर हैं। कि उनको देख कर तुम्हारा मन तुम्हारे हाथ से निकल कर उनमें चला जायगा ] ॥ | 26 सोरठा । कौड़ -बूंद, कसि संकर बरुनी सजल । कीने बदन निमूद, दृग-मलिंग डारे रहत ॥ २३० ॥ १. में ( ४ ) । २. वासर करि अति चेन ( ४ ) । ३. कबहूँ चित बिसरे न (४) । ४. होत ( ५ )। ५. गरए ( ५ ) । ६. मनु लखि ( १ ) । ७. कोरा ( १, २ ) । ६. मलंग (४)।