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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१४१

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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ मेरे नयन जिस ] ढार पर ( जिस दुलकाव की ओर, अर्थात् जिस ओर) ढरे हैं ( रीझे हैं ), उसी पर ढरते हैं ; दूसरे द्वार पर (दूसरी ओर ) नहाँ ढरते (रीझते )। किसी प्रकार भी अन्य आनन ( मुख ) से [ मेरे ] नयन 'नै' कर ( झुक कर, रीझ कर ) नहीं लगते ॥ सोवत लखि मन मानु धरि, ढिग सोयौ प्यौ आइ ।। रही, सुपेन की मिलनि मिलिं, तिय हिय सलपटाइ ।। २३३ ।। ( अवतरण )–नायक यह देख कर कि नायिका मान ठान कर सो गई है, स्वयं भी उसके पास सो रहा । उद्दीपन होने के कारण नायिका नायक से लिपट गई । पर अपनी बात रखने के निमित्त वह इस भाँति तिपटी कि नायक उसे, नंद मैं लिपटते हुए जान, जगा कर मना ले । सखी-वचन सखी से (अर्थ)-[ उसका ] मन में मान धारण कर के सोते देख प्रियतम आ कर [ उसके ] पास सो रहा । [ तब वह ] स्त्री नींद के मिलन की भाँति मिल कर [ प्रियतम के ] हृदय से लिपट रही ॥ जोन्ह नहीं यह, तमु वहै, किए जु जगत निकेतु । होत उदै ससि के भयौ मानहु सँसहर सेतु ॥ २३४ ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका को वियोग मैं जगत् अंधकारमय दिखलाई देता है। चाँदनी भी उसको अंधकार ही का रूपांतर प्रतीत होता है । अतः वह सखी से कहती है ( अर्थ ) ---यह चाँदनी नहीं है, [प्रत्युत] वही अंधकार है, जिसने जगत् में अपना] निकेतन ( घर ) कर रक्खा है । [यह जो श्वेत जान पड़ता है, सो ] मानो चंद्रमा के उदित होते [ ही वह अंधकार ] डर कर श्वेत हो गया है [ यह श्वेतता कुछ चंद्रिका की नहीं है, क्योंकि यदि चंद्रिका होता, तो मेरी ताप हरती ] ॥ -- ---- जात जात बितु होतु है ज्यौं जिय मैं संतोषु ।। होत होत जौ होइ, तो होइ घरी मैं मोषु ॥ २३५ ॥ ( अवतरण )-धन-लोभी मनुष्य से कवि की प्रास्ताविक उक्ति है ( अर्थ )-जिस प्रकार वित्त ( धन ) जाते जाते ( नष्ट होते होते ) चित्त में संतोष होता जाता है [ कि ईश्वर की जः इच्छा है, वही होता है, हमारा क्या वश है ], [उसी प्रकार ] जो [ उसके ] होते होते ( संवित होने के समय ) [ संतोष ] हो [ कि १. सपन ( १, २, ४ ) । २. पिय ( १, ३, ४) । ३. उदो ( १, २ ) । ४. ससिहर (५)। ५. मॅहि ( १, २ )।