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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही मिलेगा, हम वृथा क्यों” सुमार्ग तथा कुमार्ग से धन संचित करने का उद्योग करें ], तो घड़ी भर में ( अति शीघ्र ) मोक्ष हो जाय ।। तन भूषन, अंजन दृगनु, पर्गनु महावरे-रंगें । नहिँ सोभा क साजियतु, कहियँ हाँ कौं अंगे ।। २१६ ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की स्वाभाविक शोभा का वर्णन करती है ( अर्थ )-[ वह स्वभावतः ऐसी सुंदर है कि उसके ] तन को भूषण से, आँखों को अंजन से, [ तथा ] पाँवों को महावर के रंग से शोभा के निमित्त नहीं साजा जाता, [ प्रत्युत सव, अर्थात् भूषण, अंजन, तथा महावर का रंग, ] कहने मात्र को [ उसके ] अंग में हैं। [ भावार्थ यह है कि ये सब उसके शरीर में ऐसे मिल जाते हैं कि उसकी शोभा बढ़ाने में कुछ उपकारी नहीं होते, केवल कहने से उनकी उपस्थिति जानी जाती है, क्योंकि उसका तन तो भूषणों के विना ही सुशोभित तथा कंचन-दणे, आँखें अंजन के विना ही आँजी हुई सी एवं पार्वं महावर के विना ही लाल हैं ] ॥ पाइ तरुनिकुच-उच्चपदु चिरम ठग्यौ सबु गाउँ । छुटै ठौरु रहिहै वहै। जु हो मोलु, छवि, नाउँ ॥ २३७ ॥ चिरम = गुंजा, पुँघुची ।। ( अवतरण )—किसी कुपात्र मनुष्य को किसी राजा ने उच्च पद दे रक्खा है, अतः वह बहुत वेतच पाता है, लोग उसका उत्तम व्यक्ति समझते हैं, एवं बड़ी बड़ी उपाधिर्यों के साथ उसका नाम लिया जाता है। उसी की व्यवस्था कवि हुँघुची पर अन्योकि कर के कहता है ( अर्थ )-[ देखो, ] तरुणी-कुच-रूपी उच्च पद को पा कर विरम ने सब गाँव (ग्राम-निवासियों ) को ठग लिया है ( अपने किसी बहुमूल्य, अत्यंत शोभा से संपन्न एवं शुभनामधारी रत्न होने का धोखा दे रक्खा है ) । [ पर इस ] ठौर के छुटने पर ( इस पद से च्युत होने पर ) [ उसका ] मोल, शोभा, [तथा ] नाम वही रह जायगा, जो [उसके इस पद पर आने के पूर्व ] था ॥ नितप्रति एकत .हीं रहत, बैस-बरन-मन-एक । चहियत जुगलकिसोर लखि लोचन-जुगल अनेक ॥ २३८ ॥ नितप्रति एकत ही रहत=नित्यप्रति एकत्र ही रहते हुए अर्थात् सदा एकत्र रहने वाले । यह खंड-वाक्य 'जुगलकिसोर' पद का विशेषण है ॥ बैस-बरन-मन-एक = जो वैस ( वयक्रम ), बरन ( वर्ण, १. अंजनु ( १, ५) । २. पगनि ( ४ ), पगन (५)। ३. महावर ( १ ) । ४. रंगु ( १, २, ४) । ५. को ( ४ ), काँ (५) । ६. साजिये ( ५ ) । ७. ए ग क ( १ ), वे ही को (४), ए हो को ( ५ ) । ८. अंगु ( १, ४) । ६. तन ( १, २ )।