पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१४७

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१०४
बिहारी-रत्नाकर


१०४ बिहारी-रत्नाकर अंक वाली पुस्तक में इसका पाठ ‘पभुजा' है। उसका भी अर्थ स्पष्ट निर्धारित नहीं होता । हमारे मित्र पं० कृष्णविहारीजी मिश्र का कथन है कि देहात में पहूल' कोइँ अर्थात् कुमुदिनी के फूल को कहते हैं। अतः पहुला शब्द को 'पफूल' अथवा 'प्रफुला' का अपभ्रंश-रूप मानने में कोई बाधा नहीं प्रतीत होती । अथवा 'पहुला' शब्द को 'पाथला' शब्द का रूपांतर मानना चाहिए । पोथ काच के छोटे छोटे दानों को कहते हैं, जिनको गूंथ कर ग्रामीण स्त्रियाँ पहनती हैं । ‘पोथ' से 'थिला' और 'पोथला' से 'पोहला' अथवा 'पुहला' क्रमशः बन कर फिर उसी का स्वरों के व्यत्यय से ‘पहुला' हो जाना संभव है । सन की बेंदी-इसका अर्थ किसी ने सन के फूल की बेंदी, तथा किसी ने सन के बीज की बेंदी किया है । उक्त मिश्रजी महाशय का यह भी कथन है कि देहात में सनई के फूल की पंखड़ियों की बंदियों लड़कियाँ लगा लिया करती हैं, और सनई के फूल तथा कोइँ के फूल होते भी एक ही ऋतु में हैं । अतः इसका अर्थ सनई के फूल ही की बेंदी करना उचित है। अथवा 'सन की वेदी का अर्थ 'सनकेरवा' की वेदी करना चाहिए । 'गोरी गदकारी' इत्यादि दाहे में बिहारी ने 'सनकिरवा की आड़ लिखा है । आड़ लेने तथा आई तिलक को कहते हैं । इस दोहे में ‘सन की बेंदी' को उसी ‘सनकिरवा' की गोल टिकुली के अर्थ में मानना चाहिए । सनकिरवा का अर्थ ७०८-संख्पके दोहे की टीका में द्रष्टव्य है ॥ ( अवतरण )-नायक किसी गॅवारी स्त्री को खेत खाते देख कर उसकी स्वाभाविक शोभा पर रीझा है, और स्वगत कहता है ( अर्थ ) -[इसके ] हृदय पर [ केवल ] 'पहुला'-हार शोभित है, [तथा] भाल पर सन की बेंदी ।[यह] बाला खड़े उरोजों से (१. खड़े उरोजों वाली । २. खड़े उरोजों के प्रभाघ से) खरे खरे ( १. खड़े खड़े, खड़े रह कर । २. खरे खरे अर्थात् अच्छे अच्छे लोगों को ) खेत 'रास्वति' (१.खेत रखाती, खेत रक्षित रखती। २. मार गिराती अर्थात् मोहित करती ) है ॥


-- लई सह सी सुनन की, तजि मुरली, धुनि आन।

किए रहति नितं रातिदिनु कानन-लागे कान ॥ २४९ ।। ( अवतरण )-नायिका के अनुराग की दशा सखी नायक से कहती है ( अर्थ )-[ जब से उसने आपकी मुरली सुन ली है, तब से ] मुरली [ की ध्वनि को छोड़ कर अन्य ध्वनि ( शब्द, अर्थात् हम लोगों की बातचीत इत्यादि ) सुनने की शपथ सी ले ली है ( अन्य ध्वनि न सुनने को पूर्ण प्रण सा कर लिया है, अर्थात् किसी की कुछ नहीं सुनती ); नित्य दिनरात (निरंतर) कानों को कानन-लगे ( वन की ओर लगे हुए ) किए रहती है (वन की ओर कान लगाए रहती है ) ॥ हूँ मति मानै मुकतई कियें कपट चिर्त कोटि । जौ गुनही, तौ राखियै आँखिनु माँझ अगोटि ॥ २५० ॥ मुकतई= छुटकारा । गुनही= अपराधी । यह शब्द फारसी शब्द 'गुनाह' अथवा 'गुनह' से बना है। अगोटि = बंद कर के, कैद कर के ।। १. दिन ( ५ ) । २. जाने ( २ ) । ३. नुकतई ( १ ) । ४. नित ( १ ), वित ( ५) । ५. ज्यौं ( २ )। ६. यों ( २ ) ।