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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/१६२

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर भली भाँति पसीना आ जाता है । इसी लिए श्रीकृष्णचंद्र के हृदय-रूपी हम्माम में आने पर उनके पुलक कर पसीजने की संभावना कही गई है । मति-यह शब्द संभावनासूचक है। इसका प्रयोग इस प्रकार के वाक्यों में होता है-'मति वह आ ही जाय', अर्थात् संभव है कि वह या जाय ; ‘मति वहाँ जाना ही पड़े', अर्थात् संभव है कि वहाँ जाना पड़े ।। ( अवतरण )—किसी भक्त की उक्रि है ( अर्थ )-मैने [अपने] हृदय-रूपी हम्माम को तीनों तापों से तपा रक्खा है,मति (यह सोच कर कि कदाचित् ) कभी यहाँ आने पर श्याम ( श्रीकृष्णचंद्र ) पुलकित हो कर पसीज जायँ (करुणाई हो जायँ ) ॥ । बहकि बड़ाई अपनी कत राँचत मति-भूल । बिनु मधु मधुकर * हिमैं गड़े न, गुड़हर, फूल ।। २८२ ।। बहकि = संपत्ति अथवा किसी गुण के कारण उमंग में आ कर बकने अथवा अन्य कोई कार्य करने को बहकना कहते हैं ॥ मति-भूल = बुद्धि के भ्रम से । | ( अवतरण )-गुड़हर के फूल पर अन्योक़ि कर के कोई, किसी धनाढ्य तथा प्रतिष्ठित पर गुणहीन व्यक्ति को सुना कर, कहता है ( अर्थ )-हे गुड़हर, बुद्धि के भ्रम से अपनी बड़ाई से बहक कर ( उमंग में आ कर ) क्यों ‘राँचता' है ( १. रंजित होता है, अर्थात् लाल होता है । २. प्रसन्न होता है )। मधु ( १. मकरंद । २. सरसता गुण ) के विना मधुकर ( १. भ्रमर । २. गुणग्राही ) के हृदय में फूल नहीं गड़ता (१. चुभता । २. प्रभाव डालता ) ॥ आड़े ६ आले बसन जाड़े हूँ की राति । साहसु केकै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति ॥ २८३ ॥ (अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका की दूती नायक से उसके विरह-ताप का वृत्तांत कहती है ( अर्थ )-[ उसके शरीर में विरह-ताप ऐसा दुःसह हो रहा है कि ] जाड़े की रात में भी गीले कपड़ों को आड़े ( बीच में ) दे कर [ और फिर भी ] साहस कर कर के स्नेह के कारण सभी सखियाँ [ उसके ] पास जाती हैं ।। सब अंग करि राखी सुधर नाइक नेह सिखाइ । रसजुत लेति अनंत गति पुतरी पातुर-राइ ।। २८४ ॥ सब अंग ( सर्वांग )--पुतली के पक्ष में इसका अर्थ पुतली को सब भावों के साथ संचल करने में . रोगा, और पातुरी के पक्ष में इसका अर्थ नृत्य के सब अंगों में ।। सुघर=भद्देपन से राहत, सुंदर ॥ नाइक . . है है ( ३ ), के के ( ५ ) । २. नेह ( ३, ५) । ३. बसि ( १) । ४. तत्रै ( २ )।