बिहारी-रत्नाकर
( नायक )-संगीत तथा नृत्य सिखलाने वाले को नायक कहते हैं ॥ रसजुत = रसलेपन से ॥ अनंत= अनेक प्रकार की ।। गति–नृत्य के किसी एक विधान को गति कहते हैं, जैसे गाने के किसी एक विधान को गीत कहते हैं । गते अनेक प्रकार की होती हैं, और नेत्र के संचालन भी अनेक भाव के होते हैं। पातुरराइ-जो स्त्री नाट्यशाला में किसी नाटक-निबद्ध व्यक्ति का वेष धारण कर के अभिनय करती है, उसको पात्री कहते हैं। उसी पात्री शब्द के विकृत रूप पातुर, पातुरी इत्यादि हैं, जो अब नर्तकी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। 'पातुर-राइ' का अर्थ नर्तकियों की सर्दार, अर्थात् नर्तकियों में श्रेष्ठ, हुग्रा । इस दोहे में यद्यपि प्रबन' शब्द नहीं आया है, तथापि भान यह होता है कि विहारी ने लड़कपन में केशवदास द्वारा प्रशंसित प्रबीनराय पातुरी का नाच देखा था, जो उसके हृदय पर जमा हुआ था। इस दोहे में उसने प्रबनराय का स्मरण कर के ही पातुर शब्द के साथ 'राइ' ( राय ) का प्रयोग किया है ॥
( अवतरण )-नायक को देख कर नायिका की आँखें अनेक प्रकार के भाव से चंचल होती हैं। कोई सखी इस बात को लक्षित कर के अन्य सखी अथवा नायक से कहती है--
( अर्थ )-स्नेह-रूपी नायक के द्वारा सिखला कर सर्वांग-सुघर कर रक्खी गई [ उसकी आँखों की ] पुतली-रूपी पातुरराय अनंत प्रकार की रसीली गते लेती है ॥
सुनत पथिक-मुंह, माह-निसि चलति लुवै उहिँ गाम ।
बिनु बूझै, बिनु हाँ कहैं, जियाति बिचारी बाम ॥ २८५ ।। ( अवतरण )-अपने गाँव की ओर से आए हुए किसी पथिक के भह से यह सुन कर कि उस गाँव में माघ महीने की रात में भी लाएँ चलती हैं, प्रोषित नायक ने अपनी विरहिणी स्त्री के जीवित होने का अनुमान कर लिया है । यही बात कोई किसी से कहता है
( अर्थ )-[ नायक ने अपने गाँव की ओर से आए हुए किसी ] पथिक के मुंह से [ यह ] सुनते [ ही कि] माघ [ मास ] की रात्रि में उस गाँव में लुएँ चलती हैं, विना [ अपनी पत्नी का कुछ वृत्तांत ] पूछे [ ही तथा ] विना [ उस पथिक के और कुछ ] कहे [ ही विरह से परम संतप्त उस ] वामा को जीत विचार ( अनुमान कर ) लिया ।
उसने सोचा कि माघ की रात्रि में भी लए चलने का बस यही कारण हो सकता है कि मेरी विरहिणी पत्नी के संताप ने गाँव भर की वायु को तप्त कर रखा है। बस, इसके अतिरिक्त और ऐसा कौन कारण हो सकता है । इसी अनुमान से उसने अपनी पत्नी का जीवित होना मान लिया ; क्योंकि यदि वह मर गई होती, तो फिर माघ की रात्रि में जुएँ किसके साप से चखतीं ॥
अनत बसे निास की रिसनु उर बरि रही बिसेष ।
तऊ लाज आई झुकत खरे लहैं देखि ।। २८६ ॥ बरि रही= जल रही, संतप्त हो रही । बिसेषि= विशेष रूप से ।। झुकत = झुकते, क्रोधयुत कड़े वचन बोलते ॥
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