बिहारी-रत्नाकर विरह-बिथा-जल-परस-बिन बसियतु मो-मन-ताल ।
कछु जानत जल-थंभ-विधि दुर्धन ल, लाल ।। ४१४ ॥ जल-थंभ विधि= ऐसा कोई प्रयाग, जिससे जल के प्रभाव का स्तंभन हो जाय ॥ दुर्बोधन ( दुर्योधन )-दुर्योधन को जल-स्तंभन-क्रिया आती थी, जिसके प्रभाव से वह ताल में छिपा रहा और जल से उसे कोई बाधा नहीं पहुँची ।।
( अवतरण )—पूर्वानुरागिन नाथका ने नायक को पत्र में यह दोहा लिखा है
( अर्थ )--हे लाल, [ ज्ञात होता है कि तुम ] दुर्योधन की भाँति कुछ जल-स्तंभन की विधि जानते हो, [ क्योंकि ] विरह-व्यथा-रूपी जल के स्पर्श विना [ तुमसे ] मेरे मनरूपी ताल में [ जिसमें वह विरह-व्यथा-रूपी जल भरा है ] बसा जाता है। [ भावार्थ यह कि तुभ बसते तर मेरे मन में हो, जो विरह-व्यथा से पूर्ण है, पर तुमको वह व्यथा स्पर्श भी नहीं करती ] ॥
- ----- रुख रूखी मिस-रोष, मुख कहति रुखहैं बैन ।
रूखे कैसँ होतए नेह-चीकने नैन ॥ ४१५ ॥ ( अवतरण )- परकीया नायिका उपपति से, सखी के सामने, प्रेम छिपाने के निमित्त, रूखा रुख कर के, रूखी बात करती है, पर उसके स्निग्ध नयन से सखी उसका प्रेम लक्षित कर के कहती है
( अर्थ )--बनावटी रोप से [ तेरी ] चेष्टा रूखी [ हो रही है, और तु] मुंह से रुख वचन कहती है, [ पर तेरे ]थे स्नेह से चिकनाए हुए नयन [ भला] कैसे रूख होते ( हो सकते ) हैं [ अर्थात् स्निग्ध नयनों से तेरा प्रेम लक्षित होता है ] ॥
पति-रितु-श्रौगुन-गुन बढ़तु मानु, माह कौ सीतु ।
जातु कठिन है अति मृदौ रवनी-मनु, नवनीतु ।। ४१६॥ माह = माघ । रवनी ( रमणी ) = स्त्री । नवनीतु = मक्खन ॥
( अवतरण )-मानिनी नायिका की सख। नायक से कहती है कि उसका मान करना कुछ अन्यथा नहीं है । श्राप ही के अपराध से यह हुआ है । इस दोहे के कवि की प्रास्ताविक उक्ति भी मान सकते हैं
( अर्थ )-पति [ तथा ] ऋतु के अवगुण ( अपराध ) [ तथा ] गुण ( स्वभाव ) से मान [ तथा ] माघ महीने का शीत वढ़ता है, [ और उससे ] रमणी का मन [ तथा ] मक्खन अति मृदुल [ होने पर ] भए कठिन ( १. निष्ठुर । २. कड़ा ) हो जाता है।
इस दोहे मैं संज्ञाएँ यथासंख्य आई हैं।
१. परभि ( १ ), परसु ! ४ ) । २. जिय ( १, ४ ), हिय (२) । ३. दुरजेाधन ( ३ ) | ४. रमनी ( १ ) ।
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