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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रक्षाकर त्य त्यौं प्यासेई रहेत, ज्यौं ज्यौं पिर्यत अघाइ । सगुन सलोने रूप की ऊँ न चख-तृषा बुझाइ ॥ ४१७ ॥ | सगुन= अपने गुण अर्थात् प्रभाव से संपन्न । सलोने रूप के पक्ष में इसका अर्थ ललचाने की शक्तियुत, एवं रूप में आरोप्य अनुक्त सलोने जल के पक्ष में इसका अर्थ प्यास लगाने की शक्तियुत, होगा । जु ( जो )-इस शब्द का प्रयोग इस दोहे में व्रजभाषा के विशेष व्यवहार के अनुसार हुआ है । अतः इसके अर्थ में उलझन पड़ती है । इस ज़' ( जो ) का प्रयोग ‘क्योंकि' के अर्थ में समझना चाहिए ।।। (अवतरण )-नायिका नायक को बार बार बड़े प्रेम से देखती है । सखी उसका लोकापवाद के भय से ऐसा करने से रोकती है। इस पर नायिका कहती है ( अर्थ )-[ मेरे नयन-रूपी प्यासे ] ज्यों ज्यों [ उसको अर्थात् ‘सगुन सलोने रूप को ] अघा कर पीते हैं, त्यो त्यों प्यासे ही रहते हैं, क्योंकि [ अपने स्वाभाविक अर्थात् प्यास लगाने वाले ] गुण से संपन्न, सलोने (१. सुंदर । २. लावण्य-युत) रूप-रूपी जल से उत्पन्न की हुई 'चख-तृषा' ( आँखों की तृषा अर्थात् दिखसाध ) [ उसले अर्थात् ‘सगुन सलोने' रूप-रुपी जल से ] बुझती नहीं, [ प्रत्युत बढ़ती ही जाती है ] ॥ अरुन-बरन तरुनी-चरन-अंगुरी अति सुकुमार। चुत सुइँगुइँगु सी मनौ चपि बिछियनु नैं भार ॥ ४१८॥ सुरंगु रँगु= लाल कीट का रंग अथवा अालक्तक का रंग ॥ चपि = दब कर ॥ (अवतरण )-सी अथवा दूती नायक से नायिका की पादांगुतिय की अरुणाई तथा सुकुमारता की प्रशंसा कर के रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उस ] तरुणी के चरणों की लाल अँगुलियाँ अति सुकुमार हैं। मानो [ सुकुमारता के कारण ] बिछियों [ ही ] के भार से दब कर चूते हुए सुरँग रंग सी ( टपकते हुए लक्लक के रंग की बूंद सी) [ हो रही हैं ] ॥


--- मोर-मुर्कट की चंद्रिकनु य राजत नंदनंद ।।

मनु ससिसेखर की अकस किय सेर्खर सत चंद ॥ ४१६ ॥ चंद्रिकनु = चंद्रिका से । मोर के पक्षों में जो चंद्राकार चमकीले चिह होते हैं, वे चंद्रक कहलाते हैं । विहारी ने उसी चंद्रक शब्द के सीलिंग रूप चंद्रिका' का प्रयोग इस दोहे में तथा ६७६-संख्यक दोहे में किया है ।। ननंद =नंदनंदन अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र ॥ ससिसेखर ( शाश-शेखर )= महादेवजी, जिनके मस्तक पर चंद्रमा है ॥ अकस (अरबी अक्स )-इस शब्द का मुख्यार्थ उलटा है, पर उर्दू तथा हिंदी में यह वैर के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है ।


१. ४ ( १ ) । २. पिवत ( २, ३ ), पीत ( ५ ) । ३. कौं ( १, २ )। ४. जनु ( ३ )। ५. घुवात (१, ४)। ६. मुकुट ( २, ३, ४, ५) । ७. चंद्रकान ( ३ ), चंद्रकन (५)। ८. सतसेखर (३)।