पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७२
बिहारी-रत्नाकर


१२ विहारी-रत्नाकर | ( 410 )-- सखी, नायिका से मयूर-मुकुटधारी श्री.ष्णचंद्र की शोभा का वर्णन कर के, उसके चित्त मैं उस अद्भुत शेभा के देखने की लालसा उत्पन्न करना और उससे अभिसार कराना चाहती है - | ( अर्थ )-मोरमुकुट की चंद्रिका से श्रीकृष्णचंद्र ऐसे विराजमान हैं (सुशोभित हैं ), मानो शशिशेखर की अकस किए हुए [ जो है, से अर्थात् कामदेव अपने ] मस्तक पर सौ चंद्रमा से [ शोभित है ]॥

दोहा ४२०-अधर धरत हरि कैं, परत ओठ-डीठि-पट-जोति । हरित बाँस की बाँसुरी इंद्रधनुषसँग होति ।। ( अवतरण )-- सखा श्रीकृष्णचंद्र को बाँसुरी बजाते देख आई हैं, और श्रीराधिकाजी से उसकी प्रशंसा कर के उनको उसके दिखाने के व्याज से ले जाना चाहती है । हरि के सामीप्य से एक सामान्य बांसुरी का इंद्रधनुष के रंग की हो जाना कह कर वह यह व्यंजित करती है कि यदि आप उनके समीप चलेंगी, तो आप की शोभा भी बड़ी रंगीली हो जायगी । वह ओठ, नेत्र तथा पट की ज्योति से बाँसुरी का इंद्रधनुष के रंग की हो जाना कह कर श्रीकृष्णचंद्र के अधर की ललाई, नेत्रों की श्यामता एवं पट की पियराई का अति चटक तथा प्रभा देने वाली होना भी व्यंजित करती है। अर्थ--हरि के [ अपने ] अधर पर [ बाँसुरी ] धारण करते [ ही और उस पर उनके ] ओठ, दृष्टि [ तथा ] पट की ज्योति ( झलक ) पड़ते [ ही वह ] हरित ( हरे ) बॉस की वाँसुरी इंद्रधनुप-रंग ( इंद्रधनुष के रंग की ) हो जाती है ॥ । तौ अनेक औगुन-भरिहिँ चाहै याहि बलाइ । जौ पति संपति हूँ बिना जदुपति राखे जाइ ॥ ४२१ ॥ औगुन ( गवगुण ) :- सद्गुणों का अभाव, दुर्गुण ।। बलाइ-फ़ारसी भाषा में 'बला' विपत्ति को कहते हैं । उर्दू तथा भाषा की वोलचाल में यह काम मेरी बल। अथवा बलाय करे' का अर्थ होता है, मैं यह काम कभी नहीं करूंगा ।। पति= ला ॥ | ( अवतरण )–कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि संपत्ति की आवश्यकता तो केवल संसार में सजा रखने के लिए है। यदि उसके बिना ही भगवान् जो रक्खे जायें, तो फिर इस अनेक दुर्गुण से भरी हुई संपत्ति को चाहना केवल बला मोल लेना है ( अ )- यदि संपत्ति के विना भी यदुपति (श्रीकृष्णचंद्र ) पति रक्खे जा (निबाहे जायँ ), तो [ फिर ] अनेक अवगुणों से भरी हुई इस [ संपत्ति ] को [ मेरी अथवा अन्य किसी भी मनुष्य की ] बलाय चाहे ॥ १. छवि ( ४ ) । २. भरी ( ३, ४, ५ ) । ३. राखै ( १, २ ), राखें ( ३ )।