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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२३८

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बिहारी-रत्नाकर

करने वाला) नहीँ है, सो [बेचारा] आक (अर्क, मदार) ग्रीष्म ऋतु मेँ [जब कि अन्य वृक्षोँ को सीँचने इत्यादि की आवश्यकता होती है] डहडहा हो कर फूलता फलता है॥

किसी बेकाम के मनुष्य के विशेष संपन्न होने पर भी यह दोहा अन्योक्ति हो सकता है॥

बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौँह करैँ[] भौँहनु हँसै[], दैन कहैँ[] नटि जाइ॥४७२॥

बतरस-लालच=बातचीत करने के आनंद के लालच से॥

(अवतरण)—श्रीराधिकाजी ने वार्तालाप के आनंद के लोभ से श्रीकृष्णचंद्र की मुरली कहीँ छिपा कर रख दी है। इस पर दोनोँ मेँ जो वचन-विनोद हो रहे हैँ, उसका वर्णन सखी सखी से करती है—

(अर्थ)—[श्रीराधिकाजी ने] वाक्य-विनोद के लालच से लाल (श्रीकृष्णचंद्र) की मुरली [कहीँ] लुका कर (छिपा कर) धर दी है। [सो देखो, अब कैसा विनोद हो रहा है कि श्रीकृष्णचंद्र के] सौँह (शपथ) [कि 'बाबा की सौँह! जो मेरी मुरली खोज देगी, उसका मैँ सदा ऋणी रहूँगा', अथवा 'भैया की सौँह! मुझे यह हँसी अच्छी नहीँ लगती' इत्यादि] करने पर [श्रीराधिकाजी] भौँहोँ मेँ (किंचिन्मात्र) हँस देती हैँ, [जिसमेँ श्रीकृष्णचंद्र को उन पर संदेह हो जाय, और वे निराश हो कर अन्यत्र न चले जायँ, पर] देने के कहने पर (माँगने पर) नट जाती हैँ (मुकर जाती हैँ, अर्थात् यह कह देती हैँ कि मैँ नहीँ जानती, मैँने नहीँ छिपाई है, इत्यादि)॥

रही लटू ह्वै, लाल, हौँ लखि वह बाल अनूप।
कितौ मिठास दयौ दई इतैँ[] सलोनैँ[] रूप॥४७३॥

लटू ह्वै–बोलचाल मेँ लट्टू होना अत्यंत रीझने को कहते हैँ, जैसे 'अमुक व्यक्ति अमुक वस्तु पर लट्टू हो रहा है'॥

(अवतरण)—नायिका के रूप की प्रशंसा कर के दूती नायक को उससे मिलाया चाहती है—

(अर्थ)—हे लाल, मैँ वह अनूप बाल (बाला, युवती) देख कर लट्टू हो रही हूँ। [मैँ नहीँ समझ सकती कि] इतने सलोने रूप मेँ [माधुर्य लाने के निमित्त] दैव ने कितना मिठास दिया है [कि इतने लावण्य पर भी माधुरी अपना स्वाद अलग ही दे रही है]॥

जिस पदार्थ मेँ लवण नहीँ पड़ा रहता, वह थोड़ा ही मीठा डालने से मधुर हो जाता है। पर जिसमें लवण पड़ा रहता है, उसमेँ मिठास लाने के निमित्त अधिक चीनी इत्यादि मिलानी पड़ती है, तब कहीँ वह दुरसा होता है॥


  1. करै(२), करे(४, ५)।
  2. हँसैँ(१), हँसेँ(३), हँसे(४)।
  3. कहै(२), कहे(४), कहेँ(५)।
  4. इतौ(२)।
  5. सलोनो(१)।