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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२६१

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बिहारी-रत्नाकर


विहारी-रत्नाकर ( अर्थ १ )-हे रसिक ![ तुम ]जो ‘कटनि' ( प्रेम की काट, प्रेम के प्रभाव ) विना अटकते ( अन्य स्त्रियों से उलझते ) फिरते हो, [ वह अटकना ] रस नहीं है ( प्रेम के कारण नहीं है). [ प्रत्युत ] ‘खियाल ( खिलवाड़ ) [ मात्र] है, हे लाल, [यदि तुम्हारा यह कथन सच है, और तुम अपराधी नहीं हो, तो फिर तुम यह तो बतलाओ कि ]'नित नित' ( नित्यप्रति ) 'अनत अनत' (अन्य अन्य स्त्रियों के ) हितों से चित्त में संकुचित क्यों होते हैं। [ वे हित तो तुम्हारे कथनानुसार केवल खिलवाड़-संबंधी हैं, कुछ प्रेमसंबंधी नहीं कि संकोच के कारण हों ] ॥ नायिका नायक को 'रसिक' शब्द से संबोधित कर के यह व्यजित करती है कि तुम जो अन्य खिय से अटकने का कारण खिलवाड़ मात्र बतलाते हो, वह मिथ्या है; क्योंकि तुम तो रसिक हो, विना रस के अटकने वाले नहीं । | इस दोहे के ‘चित सकुचत कत, लाल' के स्थान पर हमारी दूसरे अंक की पुस्तक मैं ‘कृत सकुचावत, लाल' पाठ है, और अनवर-चंद्रिकादि सटक ग्रंथाँ मैं भी यही पाठ ग्रहण किया गया है। पर हमारी तीन प्राचीन पुस्तक में वही पाठ है, जो इस संस्करण में रखा गया है, और जिसके अनुसार ऊपर लिखा हुआ अर्थ किया गया है। हमारी प्रथम अंक की पुस्तक मैं यह दोहा नहीं है, क्याँकि उसमें केवल १६४ दोहे हैं। यदि दूसरे अंक की पुस्तक का पाठ शुद्ध माना जाय, तो इस दोहे का अवतरण तथा अर्थ यह होगा--- ( अवतरण २ )-परकीया नायिका, नायक के बहुत दिन न मिलने से यह समझ कर कि वह अब अन्य स्त्रियों में उलझा रहता है, उसको उराहना देती है ( अर्थ २ )-[ तुम ] जो ‘कटनि' ( प्रेम की काट अर्थात् चोट ) विना ‘नित नित ( नित्यप्रति ) 'अनत अनत' ( नई नई स्त्रियों से ) अटकते फिरते हो, [सी] हे रसिक, वह [ तुम्हारा अटकना ]रस नहीं, [ प्रत्युत ] खिलवाड़ [ मात्र ] है । हे लाल, [ इस विना रस के अटकने से ] तुम हितों को ( प्रेम के भावों को ) क्या संकुचित करते हो [ अर्थात् तुम्हारी इस विना प्रेम की क्रीड़ा से प्रेम वेचारा संकुचित होता है ] ॥ विपरीत अक्षणा से इस अर्थ में रसिक का अर्थ अरसक होता है । अरैं' परै न करै हियौ खेरै जरै पर जार। स्तावति घोरि गुलाब सौं, मलै मिलै घनसार ।। ५२९ ।। अरें = अड़ में, हठ में ॥ जार= जलन ॥ ( अवतरण )-विरहिणी नायिका की कोई सखी उसके ताप को दूर करने के निमित्त चंदन तथा कपूर को गुलाब-जल मैं घोल कर लगाती है । पर उससे उसका हृदय और भी संतप्त हो कर तन मैं जलन उत्पन्न करता है। अतः वह सखी को उस कार्य से वारण करता है १. अरे पैरें न करे ( २ ), अरे परे न करें ( ३ ), अरे परे न करे (४), अरें परै न करे ( ५ )। २. जरै स्वरी ( २ ), जरे पेरें ( ३ ), जरे खरे (४)। ३. मलय मिलें ( ३ ), मिले मिते (५), मलय मिले (५) ।