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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रलाकर २६७ से ] देखी नहीं जाती । [ जिस प्रकार बुद्धि के द्वारा यह तर्क करने पर कि यदि ब्रह्म है। नहीं, तो यह संसार कैसे ठहरा हुआ है, और श्रति में जो ब्रह्म का अस्तित्व बतलाया गया है, उसको प्रमाण मानने से ब्रह्म की सत्ता स्थापित होती है, उसी प्रकार ] बुद्धि के द्वारा [ यह ] अनुमान [ करने से कि यदि कटि है नहीं, तो ऊपर तथा नीचे के धड़ के भाग जुड़े कैसे हैं, तथा ] कान का [ अर्थात् जो लोगों को कहते सुना है कि तेरे भी कटि है, उसका ] प्रमाण करने से ( मानने से ) किसी प्रकार [ तेरी कटि ] ठहरती है ( तेरी कटि की सत्ता सिद्ध होती है ) ॥ खिचें मान अपराध हैं चलि गै यदै अबैन । जुरंत डीठि, तजिरिस खिसी, हँसे दुहुनु के नैन ।। ६४९ ॥ { अवतरण )-सखी सखी से नायक नायिका के प्रेमाधिक्य का वर्णन करती है ( अर्थ )-[ नायिका के नेत्र ] मान से [ तथा नायक के नेत्र ] अपराध से बचे ( परस्पर देखने से रोके जाते ) हुए होने पर भी, [ परस्पर न देखने के ] अचैन ( बेचैनी ) के बढ़ने से, [ एक के नयन दूसरे की ओर ] चले गए, [ और ] दृष्टि के मिलते [ ही ] दोनों के नयन, 'रिस' (रोष ) [ तथा ] ‘खिसी' ( लज़ा) [ अर्थात् नायिका के नेत्र रोष एवं नायक के नेत्र लल्ला ] छोड़ कर, हँस पड़े। रूप-सुधा-सिव छक्यौ, आसव पियत बनै न । प्यालै ओठ, प्रिया-बदन रह्यौ लगाएँ नैन ॥ ६५० ।। आसव= टपकाई हुई मदिरा ।। ( अवतरण )–नायिका का रूप देख कर नायक ऐसा मोहित हो गया है कि उससे मथ-पान करते नहीं बनता । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ नायक ] सौंदर्य-रूपी सुधा के असव से [ ऐसा ] छक गया ( अतृप्त पी कर मस्त हो गया ) है [ कि उससे ] आसव ( सामान्य मद्य ) पीते नहीं बनता। [ वह ] प्याले पर ओठ [ एवं प्रिया के वदन पर नयन लगाए हुए रह गया है ( स्थगित हो गया है ) ॥ यौं दुलमलियतु, निरेंदई, दई, कुसुम सौ गात् । करु धरि देखौ, धरधरा उरे की अर्जी न जातु ॥ ६५१ ।। धरधरा= धड़कन ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका की सुकुमारता तथा नायक की प्रबलता का वर्णन कर के नायक १. जुरति ( २, ५ ) । २. सब हैं (२), सत्रु जगु ( ४ ) । ३. प्याली ( २, ३, ५ )। ४. निर्दई ( ४ ) । ५. अज न उर कौ ( २ )।