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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३११

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बिहारी-रत्नाकर

के हृदय मेँ उत्साह बढ़ाती है, और "करु धरि देखौ इत्यादि" वाक्य से उसको फिर नायिका के पास चलने पर उद्यत किया चाहती है—

(अर्थ)—हे निर्दयी, [तुमसे] दैव [बचावे], [भला कहीँ] कुसुम सा [कोमल] गात इस प्रकार (इस निर्दयता से) दला मला जाता है [कि जैसे तुमने उसके सुकुमार शरीर को दलमल डाला है]। [नेँक उसकी छाती पर] हाथ रख कर देखो [तो सही कि उसके] उर का धरधरा अभी तक नहीँ जाता (मिटता) है॥



किती न गोकुल कुलबधू, किहिँ[] न काहि[] सिख दीन।
कौनैँ तजी न कुल-गली ह्वै मुरली-सुर-लीन॥६५२॥

(अवतरण)—सखी नायिका को शिक्षा देती है कि तू उत्तम कुल की वधू है, तुझे वंशीध्वनि सुन कर इस प्रकार विकल हो दौड़ पड़ना उचित नहीँ है। नायिका उसको उत्तर देती है कि गोकुल मेँ कुछ एक मैँ ही कुलवधू नहीँ हूँ, प्रत्युत अनेकानेक कुलवधुएँ हैँ, और तेरी भाँति सबने सबको शिक्षा भी दी है। पर तू यह तो बतला कि उन शिक्षा देने वालियोँ तथा पाने वालियोँ मेँ से कौन ऐसी है, जिसने मुरली के स्वर मेँ लीन हो कर कुल की मर्यादा का उल्लंघन नहीँ किया है। इस वाक्य से नायिका सखी पर कटाक्ष भी करती है कि तू भी तो अन्य शिक्षा देने वालियोँ की भाँति कुल-मर्यादा का उल्लंघन कर चुकी है। अतः तुझ पर यह कहावत—"पर उपदेस-कुसल बहुतेरे। जे आचरहिँ, ति नर न घनेरे"—चरितार्थ होती है—

(अर्थ)—गोकुल मेँ कितनी कुलवधूएँ नहींँ हैँ (अर्थात् सब कुलवधू ही तो हैँ, और तू भी उन्हीँ मेँ है), [और] किसने किसको शिक्षा नहीँ दी (अर्थात् सबने तेरे समेत सबको अपने अपने अवसर पर शिक्षा भी दी) [पर तू यह तो बतला कि] मुरली के स्वर मेँ लीन (आसक्त) हो कर किसने (तेरे सहित किस शिक्षा देने अथवा पाने वाली ने) कुल-गली (कुल की रीति) नहीँ छोड़ी॥



खलित बचन, अधखुलित दृग, ललित स्वेद-कन-जोति।
अरुन बदन छबि मदन[] की खरी छबीली होति॥६५३॥

खलित (स्खलित)=रीते, अर्थशून्य॥ ललित=काँपती हुई अथवा सुंदर॥

(अवतरण)—अन्यसंभोग-दुःखिता नायिका की उक्ति दूती से—

(अर्थ)—अर्थशून्य वचन, अधखुले (रतिश्रम से अलसाए हुए) दृग, पसीने के कण (बूँद) की ललित (काँपती हुई अथवा सुंदर) चमक [एवं] अरुण वदन से [तुझ पर] मदन की छवि (काम-कीड़ा से उपजी हुई शोभा) बड़ी छबीली (सुंदर) हो रही है॥

यह दोहा खंडिता नायिका का वचन नायक-प्रति अथवा सखी-वचन लक्षिता-प्रति भी हो सकता है।


  1. काहि (२,४)।
  2. को (२), किहिँ (४)।
  3. मद-छकी (४)।