बहकिन[१] इहिँ बहिनापुली, जब तब, वीर, बिनासु।
बचै न बड़ी सबील हूँ चील-घोँसुवा माँसु॥६५४॥
सबील—यह शब्द अरबी भाषा का है। इसका अर्थ रीति, पंथ इत्यादि है। यहाँ इसका अर्थ उपाय समझना चाहिए॥
(अवतरण)—नायिका की चतुर पड़ोसिन ने उससे बहनापा जोड़ लिया है, और इस नाते से नायक को अपने घर बुलाती है। नायिका की चतुर सखी उसको सचेत करने के निमित्त कहती है—
(अर्थ)—[तू] इस बहनापे से बहक मत, हे बीर! [इसमें] जब तब (कभी न कभी) विनाश (तेरे हित का नाश) [धरा] है, [क्योंकि] बड़ी सबील (उपाय) से भी चील के घोंसले मेँ मांस नहीँ बचता॥
लहि रति-सुखु लगियै हियैँ लखी लजौँहीँ नीठि।
खुलति न, मो मन बँधि रही वहै अधखुली डीठि॥६५५॥
(अवतरण)—नायिका की रत्यंत समय की मोहिनी चेष्टा का स्मरण कर के नायक उसकी सखी से कहता हुआ फिर मिलने की अभिलाषा व्यंजित करता है—
(अर्थ)—[उसने] रति-सुख ले कर [मेरे] हृदय मेँ लगी ही हुई [जो मुझे] लजौँहीं [रीति से] नीठि (किसी न किसी प्रकार, अर्थात् यद्यपि लजा से उसकी आँखेँ सामने नहीँ होती थीँ, तथापि उनको बरबस कुछ सामने कर के) देखा, [सो उसकी] वही अधखुली दृष्टि मेरे मन मेँ [ऐसी] बँध रही है (मन को ऐसा जकड़े हुए है) [कि] खुलती नहीँ (मन को अवकाश नहीँ मिलने देती)॥
कियौ सयानी सखिनु सौँ, नहिँ[२] सयानु यह, भूल।
दुरै दुराई फूल लौँ क्यौँ पिय-आगम-फूल॥६५६॥
(अवतरण)—परकीया आगतपतिका नायिका ने अपने मित्र का आगमन सखियोँ से छिपा रक्खा है। पर उसकी प्रफुल्लता से लक्षित कर के कोई सखी कहती है—
(अर्थ)—[तूने] सयानी (चतुर) सखियोँ से [जो सयान अर्थात् मित्र का आगमन छिपाने का चातुर्य] किया, यह सयान नहीँ, भूल है। [भला] प्रीतम के आगमन की प्रफुल्लता [सुगंधित] फूल की भाँति छिपाई (छिपाने से) कैसे छिप सकती है॥