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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३१८

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर २७५ के रंग से रंगा हुआ कपड़ा फीका नहीं पड़ता ( उसके ऊपर के स्निग्ध रंग की चटक नहीं जाता ), चाहे फट [ भले ही ] जाय ॥ दुसह बिरह दारुन दुसा, रहै न और उपाइ। जात जात ज्य राखियतु प्यौ कौ नाउँ सुनाई ।। ३६९ ॥ ( अवतरण )-नायिका की व्याधि दशा का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )--[ अब उसके ] कठिनता से सहे जाने के योग्य विरह की [ वड़ ] दारुण ( भयानक ) अवस्था है ( हो रही है )। [ उस कः प्राण शरीर में ] और [ किसी ] उपाय से नहीं रहता [ दिखाई देता ] [ अब तो उसका ] जाता जाता जीव प्रियतम का नाम सुना कर ( प्रियतम का नाम पुकार कर, जिसमें कि वह जाने कि प्रियतम आ गए हैं ) रखा जाता है ( जाने से रोका जाता है ) ॥ फिरि फिरि दौरत देवियत, निचले नैंक रहैं न । ए कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन ।। ६७० ।। कजरारे = काजल के रंग से रंगे हुए । यह विशेषण कवि ने यहाँ इसलिए प्रयुक्त किया है कि क्रज्ञा के वस्त्र बहुधः काले रंग के हुअा करते हैं ।। कजाक (क़ज़ाक ) -- ताक तुर्की भाषा मैं डाकू का कहते हैं । कज़ाक़ी का अर्थ कृपना, अर्थात् डाकुया का सा धावा, हुशा ॥ ( अवतरण )--परकीया नायिका अपनी अटारी अथवा खिड़की पर बैठी हुई अपने उपपति को देखने की अभिताप से चार अोर चंबज्ञ नयन चला रही है । सजी वयपि जानती है कि उसके नयन इसी कारण चंचल हैं, तथापि परिहास करती हुई उस के नयाँ को डाकू बना कर कहती है| ( अर्थ )- तेरे नयन ] पुनः पुनः दौड़ते देखे जाते हैं, [और ] तनिक भी ‘नि चले' ( निश्चल ) नहीं रहते । [ स ] ये क ज ( काजत से रंगे हुए) नयन [ अर ] किस पर कजाकी' ( डाकुओं का सा धावा ) कर रहे हैं [ उन नायक बेचारे का मन त पहिले ही लूट चुके हैं ] ॥ को छूट्यः इहिँ जाल परिः कत, कुरंग, अकुलति ।। ज्यज्य सुरझि भज्यौ चहेत, त्यौं त्यौं उरझत जातं ॥ ३७१ ।। ( अवतरण )-जो मनुश्य ऐसे फंस वड़े में पड़ा हो कि उसमें से निकजना तर असंभव हो, पर उसमें से निकलने के निमित्त वर हाथ पांव मारता और घमाता हो, उसके ढाढ़स देने के लिए कोई यह अन्योकि हरिण पर रख कर कहता है, अश्वः अपने मन को धैर्य देने के निमित्त कोई स्वगत कहता है १. राखिये ( २ ) । २. पिय ( २, ४) । ३. देखिये ( २ ) । ४. अकृ नाइ ( २, ४) । ५. चहं ( २ ) । ६. अरुझतु ( २ ) । ७. जाइ ( २, ४).।।