पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२७६
बिहारी-रत्नाकर

________________

२७६ बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-इस जाल (हँसावड़े) में पड़ कर कौन झूटा है ; हे कुरंग (१. हिरण । ३. बुरे रंग वाले, बुरी च वाले ), [ तु] क्यों [ वृथा ] अकुलाता ( छटपटाता ) है । [ देख, ] ज्यों ज्यों [ तु] सुलझ कर ( हँसावड़े से निकल कर ) भागा चाहता है, क्यों त्यों [ और भी अधिक ] उलझता जाता है (फँसता जाता है ) ॥ अब तजि नाउँ उपवि कौ, अएि पार्वंस-मास । खेलु न रहिबी खेम स केम-कुसुम की बस ॥ ६७२ ।। ( अवतरण )- प्रेपितपतिका नायिका का वन सखी से-- | ( अर्थ )-[ अब तक तो तूने अनेक उपायों से मेरे प्राणों की रक्षा की । पर ] अब उपाय का नाम [ भी ] तज दे, [ क्योंकि अब ] पावस ( वर्षा ऋतु ) के महीने आ गए । [ अब ] 'केम' ( कदंव ) के फूलों की वास (सुगंधि ) से ( कदंब के फूलों की सुगंधि के मारे ) 'खेम' ( क्षेम, कुशल ) से रहना खेल नहीं है ।। | हमारी तीन प्राचीन पुस्तकों मैं ‘ग्रायौ पावस-मास' पाठ है, और २-संख्यक पुस्तक में ‘यौ सावन मास' है । पर ‘श्रया' क्रिया एकवचन है, और ‘पावस-मास' पद बहुवचन-वाच । ‘पावस' एक ऋतु का नाम है, जिसमें दो महीने, अर्थात् सावन श्रीर भााँ, होते हैं, अतः ‘पावसमास' पद को बहुवचन ही मानना समीचीन है। प्रतीत होता है कि इसी विचार से २-संख्यक पुस्तक में 'पावस' के स्थान पर 'सावन' पाठ कर लिया गया है। इसके अतिरिक्त बिहारी ने जिस परिपाटी का निर्वाह सतसेया भर में किया है, उसके अनुसार 'पावस-मास' पद याद एकवचन माना जाय, तो उसको उकारांत होना चाहिए । पर इस दोहे में ‘पावस-मास' पद उकारांत हो नहीं सकता, क्योंकि इसका तुकांत ‘बास' आया है, जो कि स्त्रीलिंगवत् प्रयुक्त हुआ है, तथा करणकारक-रूप से शाया है, अतः उकारांत नहीं है। विहारी ने प्रकारांत एकवचन शब्द के कर्ता तथा कर्मकारक के रूप के अकारांत लिखने की परिपाटी अपनी सतसैया भर में निबाही है, अतः इस एक दोहे में उसका भग होना केवल लेखक का प्रमोद मात्र मानना समुचित है । इसी विच र से इस संस्करण में आयो' के थःन पर ‘ए’ पाठ रक्खा गया है, और प्राचीन ग्रंथ के पाठ पाद-टिप्पणी के द्वारा प्रकाशित कर दिए गए हैं। -- लँसै मुसा तिय-स्रवन मैं सुकतेनु दुति पाई। मानहु परस कपोल कैं रहे स्वेद-कन छाइ ॥६७३॥ मुरासा=जड़ाऊ कर्ण- भूषण विशेष | यह शब्द किस प्रकार 'मुद्रा' शव्द से बना प्रतीत होता है । एक इस प्रकार के छोटे कर्ण-भूषण को मुरकी भी कहते हैं। हरिचरणदास ने 'मुरासा' शब्द को कदाचित् अरबी शब्द मुरसा का विकृत रूप मान कर उसका अर्थ जड़ाऊ किया है, और इस दोहे में न्यूनपद दुषण बतलाया है । पर यह उनका भ्रम मात्र हैं, क्योंकि यदि यह शब्द ‘मुररसा' शब्द का रूपांतर हो भी, तो भी उसके प्रयोग १. भान ( ३, ५ ) । २. उपाय ( ३ ), उपाइ (४, ५) । ३. यो ( २, ३, ४, ५) । ४. सावन ( २ ) | ५. कमल ( ३, ५ ) । ६. लसे ( ४, ५) । ७. मरासी ( ४ )। ८. मुकता ( २ ) ।