पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३२३

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२८०
बिहारी-रत्नाकर

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२८० बिहारी-रत्नाकर | ( अवतरण )-कुछ दिन से नायक नायिका से अधिक प्रेम करने लगा है, जिसे छिपाने के लिए नायिका श्योरी चढ़ाए रहती है । पर उसकी प्रकृति से यह बक्षित कर के सखी कहती है ( अर्थ )-[तेरी ] और ही [ प्रकार की ] गति ( चाल ढाल ), और ही [ ढंग के ] वचन [ तथा ] और [ ही ] हुअा ( बदला हुअर) वदन (मुख ) का रंग, [ये सब ] | तेरा ] तेवर चढ़ने पर भी कहते ( प्रकाशित करते ) हैं [ कि तु] दो एक दिन से प्रियतम के चित्त पर चढ़ रही है ( अर्थात् प्रियतम के जी को भा गई है ) ॥ बँदी भाल, लॅबोल मुंहे, सीस सिलसिले बार। दृग आँजे, राजै खरी ऍई सहज सिँगार ॥ ३७६ ॥ ( अववरण )-नायिका स्नान कर के सहज शृंगार से स्थित है। उस समय की उसकी शोभा सखी नायक से कह कर उसको उसके पास लाया चाहती है ( अर्थ )-भाल पर बेदी, मुख में तांबूल, सिर पर भीगे हुए बाल [ और ] [जे हुए दृग, इन्हीं सहज शृंगारों से [ वह इस समय ] खरी ( पूर्ण रूप से ) राजती ( सुशोभित ) हे ॥ अंग अंग-प्रतिबिंब परि दरर्पन मैं सब गात ।। दुहरे, तिहरे, चौहरे भूषन जाने जात ॥ ६८० ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका के शरीर की विलक्षण अमलता की प्रशंसा कर के नायक के हृदय मैं रुचि तथा उसे देखने का कौतूहत उपजाया चाहती है ( अर्थ )-[ उसके ] दर्पण-सदृश सब शरीर में एक अंग का प्रतिबिंब दूसरे अंग में हैं और फिर उस दूसरे अंग का प्रतिबिंब उस पहिले अंग में, इस प्रकार अनंत बार बिंब प्रतिबिंब ] पड़ कर ( पड़ने से ) [ उसके ] भूषण दुहरे, तिहरे, चौहरे ( अर्थात् असंख्य ) जाने जाते हैं । एक दर्पण के सामने दूसरा दर्पण रखने से उन दोनों के मध्य की वस्तु, अपने बिंव, प्रतिबिंब तथा प्रति-प्रतिबिंब इत्यादि का संग्रह उन दर्पण मैं होने के कारण, असंख्य दिखाई देती है। यही बात उसके दर्पण से अंग के मध्यवर्ती भूषण के विषय मैं इस दोहे में कही गई है ॥ --- --- सघनकुंज-छाया सुखद सीतल सुरभि-समीर। मनु है जातु अज वहै उहि जमुन के तीर ॥ ६८१ ॥ ( अवतरण )–श्रीकृष्णचंद्र के मथुरा चले जाने पर उनके विरह में कतर कुछ गोपियाँ बैठी आपस में बातचीत करती हैं। उनमें से कोई कहती है १. तमोर ( २ ) । २. मुख ( २ ) । ३. सानैं ( २ ) । ४. दर्पन ( २ ) । ५. कालिंदी ( ३, ५ ) । ६. की ( २, ३, ५ ) ।।