पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३७६

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उपस्करण-२ बायौ बिरह हिय हुत, रहौ जु भातर लागि । छिरके उठी गुलाब के चुना की स अगि ॥ ३० ॥ बार बार कई बावरी, तनक पीर नहिँ तोहिं । जरी जाति हैं जोन्ह म, ले परछाँह मे ॥ ३१ ॥ ग्रीषम जाति ही जरी, पावस जारति काहि ।। बिरह बिरह की विरह की अगि अंग में ताहि ॥ ३२ ॥ बुढ़ परी बसुधा लखी, बहकि उठी से बार। पावस जरियै क्या नहीं, पानी मॅझ अँगार ॥ ३३ ॥ मृम्वि मिरच तनु रह्यौ, जौ देखेगी टोइ । प्रान उड़े घनसार लां, अवधि बँधेची हो ॥ ३४ ॥ सकुच सहित वातनि लगी, अननु फेरति नाहिँ । नैना हैंचितचोर ली निरखि निरखि नै जाईि ॥ ३५ ॥ कोटि अछरा वारिये, या सुकिया सुख देई । ईली ऑखिनि हाँ चितै, गाढ़े गहि मनु लेइ ॥ ३६॥ औगुन अगनित देखिये, पलको देहि न नाखि । नीचें नीचे कर्म सव, ऊँचे ऊँचे ऑखि ॥ ३७॥ बुरी न ऊ कहि सकै बड़े बस की कानि । ‘भत्नी भलो सब कहि उॐ धुवाँ अगर को जानि ॥ ३८ ॥ अपन हाँ गुन पाइयै, उपकारी जसु लेइ । घर हूँ के हाथ चढ़े, टेक महावत देइ ।। ३९ ॥ नख सिख निरखत हो। तुम्हैं, टेढुई सय गात । भगत-हृदय में कौन विधि सूधे है जु समात ॥ ४० ॥ हरि को फिस्य न पेड़ है, लोभ कियौ सय देस । मनु ने भयो कहूँ ऊज, भए ऊजरे केस ॥ ११ ॥ कर कंपै, लेखिनि डिगे, अंग अंग अकुलाइ । मुधि अहं छाती जरे, पाती लिखी न जाइ ॥ ४२ ॥ मुरत-अंत पीतम चले, नख लागें हिय नारि । जौ लें डारी जोन्ह म, तौ गइ चाँदनि मारि ॥ ४३ ॥ सरवर की छाती फटी, और कछु दुखु नहिँ । पारि देखि पंथी धंसं, नीर-हीन फिरि हिँ ॥ ५ ॥ १. भागि । २. न चुची । ३. मित्र । ४. भजहुँ । ५. फटे । ६. पाइ । ७. थके । ८. जाइ ।