पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३७७

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बिहार-रत्नाकर दुखी सुख दिन काटिये, घाम बारि हूँ साइ। छाँह न ताकी तोकियै, पेड़ पातरी जोइ ॥ ४५ ॥ उगे उगें, छूटी लट, लट लटपटे बैन । तेरीई चहचर कर नेह-चकने नैन । ४६ ॥ भौन भीर, गुरजन भरे, सके न कहि के बैन । दंपति डडा कटाच्छ भरि चरि खेले नैन ॥ ५७ ॥ बिधुवदनी मोसा कहत कत उपजावत दाहु । नैननलिन फूले जहाँ रवि-बदनी के जादु ॥ १८ ॥ नन, स्रवन, मन ढरि मिले, अंग न रही सँभार । रूठन-हारी एक है, सब मनायन-हार ॥ ४६ ॥ निसि बोलौ नहिं नाह सां, उदे होन दे भानु । हीरा हीरा सी करे, तो पाछ कर मानु ॥ ५० ॥ लाख भॉति नेवजु करे, माँगे, महरि न देइ । मोहन मुख देखत रहे, जाखु गुरैया लेइ ।। ५१ ॥ ब्रज-वासिनि को वनि गयो याही में सव सुतु । गहकि गुरैया पूँजिये गद गदाधर पुनु ॥ ५२ ॥ बेद भेद जानें नहीं, नेति नेति कह बैन । ता मोहन सी राधिका कहे महावरुदैन । ५३ ॥ जग्य न पायौ ब्रह्म हैं, जोग न पायो ईस । । ता मोहन मैं राधिका सुमन गुहावति सीस ॥ ५४ ॥ सिव, सनकादिक, ब्रह्म हैं भरि देख्यौ नहिं डीठि। नामोहन-तन राधिका दै दै वैठति पीठि॥ ५५ ॥ मनु माथी केते' मुनिनि, मनु न मनायो आइ । ता मोहन पं राधिका मान गहावति पाइ ॥ ५६ ॥ जिन सिगरी बसुधा रची तत्व मिले के पाँच । ता मोहन की राधिका किते नचावति नाच ॥ ५७ ॥ देव अदेव सबै जपं अपने अपने ऐन । तामोहन-तन राधिका चितवति आधे नैन ॥ ५८ ॥ गाइ दुहावन हौं गई, लखे खरिक हरि साँझ । सखी, समोवन है गर्दै अखि अॉखिनि माँझ ॥ ५६ ॥ १. विरमिये । २. तेरे यह । ३. बहकि । ४. माइये । ५. जु मुनानि मन । ६. सत्रे स।