पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/४६

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ही इत्यादि दोहे में भी कहा है, और माघ का एक श्लोक भी गौर तथा श्याम छविय के, पारस्परिक आभा से, हरी हो जाने के वर्णन मैं है, जो कि नित प्रति एकत ही इत्यादि दोहे की टीका में उद्धृत किया गया है। इस भाँति उनके रूप की प्रशंसा कर के कवि उनसे अपनी भत्र-बाधा दूर करने की बिनती करता है ॥ अब दूसरा अर्थ नीचे लिखा जाता है| हे वहीं राधा नागरी, जिसके तन की झाँकी अर्थात् झलक [ आँखाँ में ] पड़ने से ( दिखाई देने से ) श्रीकृष्णचंद्र हरेभरे अर्थात् प्रसन्न-वदन हो जाते हैं, मेरी भव-बाधा हरो ॥ इस अर्थ से कवि, श्रीराधिकाजी के श्रीकृष्णचंद्र की अत्यंत प्रेमपाश्री होने की प्रशंसा करता हुआ, उनसे अपनी भव-बाधा निवारण करने की प्रार्थना करता है। ऊपर कहे हुए दोन अथ” से कवि, श्रीराधिकाजी के रूप तथा प्रियतम-प्रियता की प्रशंसा करता हुआ, निम्नलिखित तीसरे अर्थ से उनमें भव-बाधा हरने का सामर्थ्य सिद्ध कर के, उनको अपनी भवबाधा हरने पर उयत करता है । इस सामर्थ्य के सिद्ध करने से कवि का यह तात्पर्य है कि, अपने सामर्थ्य का स्मरण कर के, वह शीघ्र ही उसकी भव-बाधा हरने के लिए उत्साहित हो जायँ ॥ वह तीसरा अर्थ यह है हे वही राधा नागरी, जिसके तन ( रूप ) का ध्यान पड़ने से (भक्त के हृदय में आने से) काले रंग वाला [ पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक इत्यादि ] हृतद्युति ( गतद्युति अर्थात् अपनी कल्मषता से राहत ) हो जाता है ( अर्थात् अपना दुःखद प्रभाव छोड़ देता है ), मेरी भव-बाधा ( सांसारिक दुःख, दारिद्र, चिंता इत्यादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी में काला माना जाता है ) हरो ॥ ऊपर के तीन अर्थों में 'राधा नागरि’ पद संबोधन माना गया है । उसे प्रथमपुरुष-वाची मान कर भी इस दोहे के यही तीन अर्थ हो सकते हैं। हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक में से चार मैं “मेरी भव-बाधा', यही पाठ है, और तीसरे अंक की पुस्तक आदि मैं खंडित है। कृष्ण काव की टीका के अनुसार भी यही पाठ ठीक ठहरता है । कृष्ण कवि ने, अपनी टीका मैं, प्रत्येक दोहे की जाति का नाम तथा उसके गुरु और लघु अक्षरों की संख्या लिख दी है। इस दोहे को उन्हाँने 'करभ' लिखा है, जिसमें ३२ अक्षर, अर्थात् १६ गुरु और १६ लघु, होते हैं। यह संख्या ‘भव-बाधा' ही पाठ मानने से चरितार्थ होती है, अथवा 'भौ-बाधा हरहु' पाठ रखने से । पर 'इरहु’ पाठ किसी पुस्तक मैं नहीं मिलता । एक पुरानी लिखी हुई पुस्तक, जिसमें दो का क्रम पुरुषोत्तमदासजी के बाँधे हुए क्रम के अनुसार है, हमको वृंदावन में मिली है। उसमैं ‘भौ-बाधा' पाठ तो है, पर हरहु' पाठ उसमें भी नहीं है। अतः यदि 'भौ-बाधा' पाठ शुद्ध माना जाय, तो यह दोहा करभ जाति का नहीं रहता, जैसा कि कृष्ण कवि ने इसको लिखा है । कृष्ण कवि ने अपनी टीका संवत् १७८२ में समाप्त की थी । अतः यह बात स्पष्ट है कि उस समय, जब कि बिहारी को मरे बहुत दिन नहीं बीते थे, ‘भवबाधा' ही पाठ प्रसिद्ध था । पर विचारने की बात यह है कि मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं बिहारी ने 'मेरी भव-बाधा' कैसे रक्खा होगा; क्योंकि इस पाठ के आदि मैं त-गण भरता है, जो कि अशुभ माना जाता है। इसी को यदि वह ‘मेरी भौ-बाधा' कर देते, तो