पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/४७

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर अदि मैं शुभ गण म-गण पड़ जाता, और छंद मैं भी कोई त्रुटि न पड़ती। यह कहना तो असंगत ही होगा कि बिहारी गण-विचार नहीं जानते थे ; कि यह तो ऐसी सामान्य बात है कि इसको थोड़ा पदे हुए लोग भी जानते हैं। इसके अतिरिक्त ‘भव-बाधा’ को ‘भौ-बाधा' कर देने में कोई कठिनाई भी न थी । फिर बिहारी ने, मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं, ‘भवबाधा' क्यों लिखा ? इसके दो कारण हो सकते हैं—पहला त यः कि बिहारी के दोहे बहुधा, उनके मुख से सुन कर, राजसभा के लेखक अथवा बिहारी के शिष्य लिख लिया करते थे, अतः संभव है कि यह पाठ लिखने वाल के प्रमाद से प्रचलित हो गया हो; दूसरा यह कि बिहारी ने इस दोहे को मंगलाचरण में रखने के अभिप्राय से न बनाया हो, पर, सतसई संकलित करते समय, इसको इस योग्य देख कर, मंगलाचरण मैं रख दिया हो, और इसके अादि के गण पर ध्यान न दिया हो । जो हो, हमारी समझ में, ‘मेरी भौ-बाधा हौ' पाठ होता, तो अच्छा होता । पर प्राचीन पुस्तक में 'मेरी भव-बाधा हरौ' ही पाठ होने के कारण यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है ॥

अपने अँग के जानि के जोबन-नृपति प्रबीन ।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन ॥ २ ॥

अपने अंग के ( अपने अंग के )-राजा के प्रधान, अमात्य, सेनापति तथा सेना इत्यादि राजा के अंग अर्थात् सहायक कहलाते हैं । अतः अंग का अर्थ यहाँ सहायक अथवा पक्षी होता है । अपने अँग के' का अर्थ अपने पक्षियों के दल मैं हुया । इजाफा( इज़ाफ़ा )-अरबी भाषा में इजाफ्रा बढ़ती अर्थात् वृद्धि को कहते हैं। जब कोई बादशाह, अपने किसी सरदार अथवा कर्मचारी को अपना शुभचिंतक समझ कर, अथवा उसके किसी अच्छे काम से प्रसन्न हो कर, उसकी जागीर अथवा वेतनादि मैं वृद्धि कर देता है, तो यह वृद्धि इज़ाफ़ा कहलाती है । ( अवतरण )-नायक नवयौवना मुग्धा के शरीर तथा उत्साह में वृद्धि देख, रीझ कर, उसकी प्रशंसा करता हुअा, अपने मन में कहता है ( अर्थ )-यौवन-रूपी प्रवन ( दान, दंड इत्यादि उपायों में निपुण ) नृपति ( राजा ) ने, [उनके ] अन अंग का ( दल का, पक्ष का ) समझ कर, स्तनों (कुचों), मन, नयन, [ और ] नितंब का वड़ा इज़ाफ़ा कर दिया है ॥ | टीकाकारों ने प्रायः ऐसे दोहों को सखी का वचन सखी से, नायक से, अथवा स्वयं नायिका से माना है । पर हमारी समझ में ऐसे दोहाँ को, सखी का वचन मानने की अपेक्षा, नायक का वचन मानने में विरोर रस है; क्याँके कि पी गुण-ग्राहक की प्रशंसा से किसी वस्तु के गुण की जैसी वास्तविकता प्रकट होती है, वैसी किसी अभिप्राय से प्रशंसा करने वाले की प्रशंसा से नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे दोहाँ मैं हमने प्रायः नायक का स्वगत वचन माना है ॥

अर तैं टरत न घर-परे, दई मरक मनु मैन ।
होड़ाहोड़ी बढ़ि चले चितु, चतुराई, नैन ।। ३ ।।

१. * ( २ ) । २. होड़ीहोड़ा ( २, ४) ।