पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/४८

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर |अर ( अँड़ )= किसी बात के निमित्त हठ-पूर्वक डट जाना । यहाँ ‘अर' का अर्थ अपने गौरव के निमित्त हठ करना है । बर:परे–‘बर' का अर्थ बल है। यहाँ इसका अर्थ उत्साह, उमंग है। अतः ‘बर-परे' का अर्थ उभंग से भरे हुए होता है ॥ मरक= बढ़ावा, चाँटी ॥ होड़ाहोड़ी-होड़ बराबरी करने की स्पृहा–लागडाँट-को कहते हैं। ‘होड़ाहोड़ी' का अर्थ परस्पर की लागडाँट होता है । ( अवतरण )-नवयौवना नायिका की शोभा से रीझ कर नायक, उसकी प्रशंसा करता हुआ, अपने मन मैं कहता है ( अर्थ )-[ अहा ! इस स्त्री के शरीर में यौवनागमन के कारण ] उमंग से भरे हुए चित्त, चतुराई और नयन [ अपने अपने ] हठ से नहीं हटते, [ श्रीर] होड़ाहोड़ी (परस्पर लाडॉट कर के ) बढ़ चले हैं, मानो मदन ने [ इन्हें ] बढ़ावा दे रक्खा है ॥

औरै-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज ।।
मनीँ धनी के नेह की बनीँ छनीँ पट लाज ।। ४ ।।

औरै-ओप= कुछ और ही ओप वाली । यह समस्त पद ‘कनीनिकनु' का विशेषण है ॥ कनीनिकनु -कनीनिका आँख की पुतली को कहते हैं। 'कनीनिकनु' कनानिका शब्द के संबंधकारक का बहुवचनांत रूप होता है । इसके पश्चात् की तृतीया की विभक्ति का लोप है, अतः इसका अर्थ कनीनिका से,.अर्थात् कनीनिका के कारण, हुया । गनी= गिनी गई है, मानी गई है । घनी-सिरताज-घनी का अर्थ अनेक होता है। यहाँ इसका अर्थ अनेक सपत्नी है । ‘सिरताज' फ़ारसी समस्त शव्द ‘सरताज' का रूपांतर इसका अर्थ शिरोमणि अर्थात् श्रेष्ठतम होता है । इसलिए ‘घनी-सिरताज' का अर्थ अनेक संपनियों में शिरोमणि अर्थात् श्रेष्ठतम पत्नी हुआ ॥ मन (मणि ) - हीरा, नीलम इत्यादि, अथवा सर्प इत्यादि से निकली हुई मणियाँ । मणिय मैं अनेक प्रकार के प्रभाव माने जाते हैं। किसी मणि के पहनने से लक्ष्मी की प्राप्ति, किसी से अन्य मनुष्य का सम्मोहन इत्यादि माना जाता है । धनी = प्रभु, स्वामी अर्थात पति ॥ मनी धनी के नेह की—इसका अर्थ पति के स्नेह को प्राकर्षित करने वाली मणियाँ होता है । छन = अाच्छादित, छिपी हुई । मणि, मंत्र इत्यादि का प्रभान छिपे रहने पर विशेष होता और खुल जाने पर जाता रहता है । इसी प्रकार लल्ला से आच्छादित नेत्र में भी अाकर्षण-शक्ति विशेष होती है । इसी लिए कवि ने कनानिका को मणि बना कर लजा-रूपी पट से ढाँप रक्खा है ।। |

( अवतरण )-नवयौवना मुग्धा की आँखों की पुतलियाँ मैं यौवनागमन के कारण कुछ विलक्षण प्रभा तथा लज्जा का संचार हो गया है । उसी की प्रशंसा सखी, उसके हृदय में उत्साह बढ़ाने के निमित्त, करती है|

( अर्थ )--[ अब तू अपनी ] और ही ओप ( प्रभा ) वाली कनीनिकाओं के कारण अनेक [ सपत्नियों ] में शिरोमणि गिनी गई है, [ क्योंकि ये तेरी कदीनिकाएँ] लज्जा-रूपी पट में छिपी हुई ( लिपटी हुई ) पति के स्नेह की ( पति के स्नेह को तेरी ओर आकर्षित करने वाली ) मणियाँ बन गई हैं ॥ १. सनी ( १, ४, ५) ।।