पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/४९

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बिहारी-रत्नाकर सनि-कज्जलं चख-झव-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु ।। क्य न नृपति है भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु ॥ ५ ॥ सनि ( शनि )= शनैश्चर नामक ग्रह । इस ग्रह का रंग काला माना जाता है, और वस्तुतः भी इस तारे का रंग देखने में श्याम प्रतीत होता है । सनि-कजना= जिसमें कजल शनि है ऐसी । यह समस्त पद ‘चख-झख-लगन’ का विशेषण है। इसमें बडुत्रीहि समास है। चख (चक्षु )= आँख । झख ( झष )= मछली ॥ लगन (लग्न)इस शब्द का धात्वर्थ लगा रहना, मि ला रहना है । येतित्र की परिभाषा में क्रांतिवृत्त के क्षितिज मैं लगे रहने को लग्न कहते हैं। भारतीय ज्योतिषाचार्यों के अनुसार सूर्य पृथ्वी की परिकमा करता है । उस परिक्रमा-पथ को क्रांतिवृत कहते हैं, जे स्वयं भी, प्रह वायु-द्वारा चलायमान हो कर, पृथ्वी के चारों ओर घूमा करता है । यह क्रांतिवृत बारह सभ भाग में विभक्त माना गया है। एक एक भाग एक एक राशि के नाम से ख्यात है। उन बारह राशि के नाम ये हैं-नेत्र, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन । जो राशि जितने काल तक पूर्व क्षितिज से सम्मिलित रहती है, उतने काल तक उस राशि की लग्न मानी जाती है । जैसे यदि सूर्योदय के समय क्रांतिवृत्त की मीन राशि तितिज से सम्मिलित हो, तो उस समय मीन लग्न मानी जार श्रीर जब तक, क्रांतिवृत के भ्रमण के कारण, वह राशि घूम कर क्षितिज-रेखा का उल्लंघन न कर जायगी, और मेष लग्न उस रेखा पर न पहुंच जायगा, तब तक मीन लग्न का मान रहेगा । उसके पश्चात् मेष लग्न का मान आरंभ होगा । जन्म-कुंडली के संबंध में लग्न उस लग्न को कहते हैं, जो किसी के जन्म के समय होती है। जैसे यदि किसी लग्न हो, ती मीन लग्न कहने से उसके जन्म-काल की लग्न समझी जायगी । यदि उस मनुष्य के जन्म के समय मीन लग्न हो, योर शनि ग्रह भी उस समय मीन राशि ही में हो, तो उस मनुष्य की लग्न मैं मीन राशि के शनि का होना कहा जायगा। ऐसा मनुष्य ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राजा होता है, यथा तुलाकोदर इमीनस्थो लग्नस्थोऽपि शनैश्चरः ।। करोति भूपतेर्जन्म वंशे च नृपतिर्भवेत् ॥ ( जातक-संग्रहः, राजयोग-प्रकरण, श्लोक १३ ) ‘लगन' शब्द इस दोहे मैं श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ तो वहीं है, जो ऊपर लिखा गया है, और दूसरा लगना, अथवा मिलना, है ॥ सुदिन = अच्छा दिन अर्थात् ऐसा समय, जो कि ग्रहों की स्थिति के कारण राजयोग के अनुकूल हो । यद्यपि शनि का मन लग्न में होना मनुष्य को राजा बनाता है, तथापि केवल एक यही योग इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं है । शोर भी ग्रहों का यथेष्ट स्थानों मैं होना आवश्यक है, अर्थात् और प्रकार से भी वह समय सानुकूल होना चाहिए । यही सानुकूलता विहारी ने ‘सुदिन' कह कर व्यंजित की है। नेत्रों से देखने के विषय में सुदिनना का यह भाव है कि नायिका के नायक को क जल-कलित नेत्रों से देखने के समय ऐसा सुअवसर था कि वह अांखें भर कर उसकी ग्रोर देख सकी । सनेहु ( स्नेह ) = स्नेहरूपी बालक । इस दोहे में, ‘उपव्या', 'लगन' इत्यादि शन्द के पड़ने के कारण, अर्थ-बल से बालक शब्द का ग्रहण हो जाता है । भगवै = भागे, भोग करे ॥ सुदेसु = सुंदर देश । देश का सौष्ठव उसका धनधान्य तथा सानुकुल प्रजा से संपन्न होना इत्यादि है, और देह का सौष्ठव सुंदर, युवा तथा स्निग्ध होना है ॥ | ( अवतरण )-किसी सुअवसर पर नायिका के कज्जल-कलित नेत्रों से देखने से नायक के हृदय में स्नेह उत्पन हुआ, जिपने उसके सवंग पर अधिकार जमा लिया । उसकी इसी दशा का वर्णन सखी, बेरी गरी से नायिका-प्रति कर के, उसको नायक से मिलाया चाहती है १. कबलु ( १ )।