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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर लेने को उसका खिलवाड़ ठहरा कर, इधर तो नायिका के रोष को उभरने नहीं देती और उधर नायक को सचेत करती है (अर्थ)-[ तुम ] खेल से क्या लोगे ( इस खेल में क्या पाओगे ) ! [ यह ] कुढंगी बात ( अर्थात् खिलवाड़ के निमित्त अन्य स्त्री का नाम ले कर नायिका को चिढ़ाना ) छोड़ दो । [ देखो, बड़ी कठिनता से, ] शपथ खाते खाते [ नायिका की सरोष ] भैहैं कुछ हँसौं हाँ ( हास्योन्मुखी ) हुई हैं [ ऐसा न हो कि वे कहाँ फिर चढ़ जायँ ] ॥ । इस दोहे की व्याख्या श्रीयुत पंडित पद्मसिंजा शर्मा ने बहुत अच्छी की है। नायक के अन्य स्त्री का नाम लेने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उसे नायिका की मान-चेष्टा बहुत अच्छी लगी, अतः वह फिर वही चेष्टा देखने के निमित्त, खिलवाड़ मैं, अन्य स्त्री का नाम ले कर उसको रुष्ट करना चाहता है । इस प्रकार का भाव इस कवित्त मैं भी है-“घरी द्वैक परम सुजान पिय प्यारी रीझि मान न मनायौ, मानिनी को मान देखि रह्यौ ।' डोरी सारी नील की ओट अचूक, चुकें न । मो मन-भृगु करबर गहें अहे ! अहेरी नैन ॥ ५० ॥ डारी= वृक्ष की पतली साखा, टहनी ॥ नील की =नीली । करबर ( कर्वर )= चीते । इस शब्द में सारोपा लक्षणा है । यहाँ वर्षमान नयन की अप्रकृत कर्वर के साथ तादात्म प्रतीति है ॥ अहे—इस शब्द का प्रयोग किसी को संबोधित करने में होता है, विशेषतः आश्चर्य से संबोधित करने में ॥ ( अवतरण )-नायक-वचन नायिका से ( अर्थ )-हे [ प्यारी, तेरे ] कर्वर ( चीते ) [ अर्थात् ] अहेरी नयन नीली साड़ीरूपी डारी ( डाल-पत्तों ) की अचूक ( कभी व्यर्थ न होने वाली ) श्रओट में मेरे मन-रूपी मृग को पकड़ लेते हैं, चुकते नहीं ॥ चीता जब मृग को पकड़ना चाहता है, तो डाल-पत्त तथा झाड़ियाँ की ओट मैं छिप छिप कर उसके अत्यंत समीप पहुँच जाता है, और फिर एकाएकी झपट कर उसको छोप लेता है। दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साई हिँ न भूलि । दई दई क्यौं करैतु है, दुई दई सु कबूलि ।। ५१ ॥ दरिघ साँस= लंबी साँस, जैसी दुःख में मनुष्य लेता है । साईं हिं= स्वामी को ।। कबूलि = अंगीकृत कर ॥ | ( अवतरण )-किसी विपत्ति-ग्रस्त को उसका गुरु अथवा कोई मित्र धैर्य देता है ( अर्थ )-[तु इस विपत्ति में ] दई दई ( हा दैव ! हा दैव!) क्यों कर रहा है, [जो विपत्ति] देव ने दी है, उसको [ धैर्य धर कर] अंगीकृत कर ( अर्थात् सहन कर )। [१] दुःख में लंबी साँस न ले, [ और ] सुख में स्वामी को न भूल ॥ १. सारी-डारी ( २, ४) । २. साईं नहिं ( २, ४) । ३. करत ( ४ ) ।