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बिहारी-रत्नाकर

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२० बिहारी-रत्नाकर वैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन मॉहै । देखि दुपहरी जेठ की छाँह चाहति छाँह ॥ ५२ ॥ सदन-तन= घर का पिंड ॥ ( अवतरण )-स्वयंदूतिका नायिका का वचन नायक से ( अर्थ )-[ ऐसी प्रचंड घाम के समय तुम कहाँ जा रहे हो? आओ, इस घर में धाम का निवारण कर लो । देखो, ] जेठ की दुपहरी देख कर छाया भी छाया (आच्छादन) [ के नीचे छिपना ] चाहती है। [ वह इस समय ] अति सघन वन में बैठ रही है (विश्राम ले रही है ), [ अथवा ] घर के तन (पिंड ) के भीतर पैठ रही है ( घुस रही है, अर्थात् बृक्षों के घेर की मिति के तथा घरों की भित्तियों के बाहर नहीं दिखलाई देती ) ॥ जेठ के दिन मैं मध्याह्न के समय सृर्य ठीक सिर पर आ जाता है, अतः वृक्ष की छाया उनके घेरे के बाहर नहीं आती, और घरों की छाया भी छत के नीचे ही रहती है, भित्तिर्यों के बाहर नहीं पड़ती ॥ हा हा ! बदनु उघारि, दृग सर्फल कैरै सबु कोईं। रोज सरोजनु नैं परै, हँसी ससी की होई ॥ ५३॥ हा हा !—यह ब्रजभाषा में किसी को सविनय संबोधन करने में प्रयुक्त होता है ॥ वदनु ( वदन )= मुख । यहाँ इसका अर्थ मुख-रूपी चंद्र है ॥ रोज ( फारसी रोज ) = दिन । उर्दू में रोज़ पड़ना एवं भाषा में दिन पड़ना विपत्ति तथा काठिन्य पड़ने के अर्थ में बोला जाता हैं ॥ सरोजनु कै = कमलों के निमित्त | सरोज शब्द का अर्थ यहाँ गौणी साध्यवसाना लक्षणा से नयन-रूपी सरोज होता है । ससी ( शशि ) = चंद्रमा । ‘ससी' को अर्थ भी यहां गौणी साध्यवसाना लक्षणा से मुख-रूपी शशि होता है ।। ( अवतरण )-खंडिता नायिका ने नायक को देख कर, अपनी उदासीनता प्रकट करने के लिये, पूँघट काढ़ लिया है। सखी, यह सोच कर कि चार अखें हाँ तो शील से मान छूट ज अाँखें हाँ तो शील से मान छूट जाय, उससे पूँघट हटाने की प्रार्थना करती है । वह उसी प्रार्थना-वाक्य मैं, चातुरी से, नायिका के प्रभाव तथा सौंदर्य की प्रशंसा भी, उसकी प्रसन्नता के निमित्त, करती है, और अपनी प्रार्थना का निमित्त अपनी मंडली की सखिर्यों के नेत्र के सफल, नायक को सजित एवं सपत्नी को उपहास-पात्री बनाने की अभिलाषा ठहराती है ( अर्थ )—हा हा ! [ सखी, पूँघट हटा कर अपना ] मुख खोल, [ जिसमें हम ] सब [ सखी ] जन [ अपने ] डग सफल करें ( तेरे मुख का सौंदर्य, अपने पति पर तेरा प्रभाव एवं तेरी सपत्नी के सौंदर्य का उपहास देख कर हम सब आँखें पाने का फल पावें),[ नायक के ] नेत्र-रूपी सरोजों पर काठिन्य पड़े (वे तुझे सरोष देख कर झेप जायँ), [ और उसकी दृष्टि में तेरी सपत्नी के ] मुख-रूपी चंद्र की हँसी हो ( अर्थात् वह उपहास-पात्र जान पड़ने लगे ) ॥ । कई एक टीकाकारों ने, इस दोहे का कुछ और ही अर्थ समझ कर, अनेक शंकाएँ तथा उनका समा१. मन ( २ ) । २. माँहि ( २, ५ )। ३. छाँहि ( २, ५ ) । ४. सुफल (४) । ५. करौ ( १, ४)। ६. कोउ (१)। ७. परौ (१)। प. होउ (१) ।।