पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/८८

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बिहारी-रत्नाकर

बिहारी-रलाकर ४५ - ( अवतरण )-नायक ने नायिका का अधरपान किया था, जिससे उसमें लाली आ गई । नायिका ने वह लाली पान के रंग से छिपा रक्खी थी । पर पीक के छूट जाने पर वह वाली प्रकट हो गई। इससे सखी उसकी रत्ति लक्षित कर के कहती है ( अर्थ ) सुंदर शुति छिपाए नहीं छिपती ( यद्यपि तूने पान के रंग से अधर की चुंबनकृत लाली छिपा रखखी थी, पर भला वह कहीं छिप सकती है )। [ देख, अब ] पीक छूटने पर [तेरे ] अधर में, रति का चिह्न प्रकट करती हुईऔर ही प्रकार की ( अधर की स्वाभाविक लाली से भिन्न प्रकार की ) अनूप लाली उठी है ( निकल आई है ) ॥ यह दोहा अन्यसंभोगदुविता नायिका का वचन दूती से भी हो सकता है। ऐसी अवस्था में ’ का प्रयोग व्यंग्यारमक होगा ॥ वेई गड़ेि गार्ड परी, उपथौ हारु हिटें न । आन्यौ मोरि मतंगु सतु मारि गुरेरठ मैन ॥ ९७ ॥ गा।= गड़हे ॥ उपयौ—किसी कोमल वस्तु पर किसी कड़ी वस्तु के दबने या लगने के कारण चिह्न पड़ जाने को उपटना कहते हैं ॥ गुरेर =गुल से । गुले अथवा गुलेल ( गुरेर ) उन छोटी छोटी गोलियों को कहते हैं, जो एक प्रकार के धनुष के द्वारा चलाई जाती हैं । उस धनुष विशेष को भी गुलेला अथवा गुलेल कहते हैं ( अवतरण )—नायक के हृदय पर मोतियों के हार का चिह्न उपटा हुआ देख कर खडिता नायिका कहती है ( अर्थ )[ आप संकुचित क्यों होते हैं, यह जो आपके हृदय पर चिह्न है, वह ] इद्वय पर हार नहीं उपटा हुआ है, [ प्रत्युत आप ऐसे ] मतंग ( मातंग, बड़े हाथी ) को मानो मदन गुलेलों से मार कर फेर लाया है, [ सो ] वे दी [ शुल्क ] गड़ कर [ ये ] गाहें पड़ गई हैं ( अर्थात् आप इस समय मदन से पीड़ित हो कर यहाँ आए हैं, क्योंकि दिन में परकीया की प्राप्ति कठिन है । नहीं तो भला आपके दर्शन कहाँ मिलते, आप तो निरंकुश हाथी के समान इधर उधर घूम करते हैं ) ॥ नैक न करंसी बिरह-झर नेह-लता कुम्हिलौति। नितें नित होति हरीहरी) खरी झालरति जति ॥ ९८ ॥ आरसी = जली ॥ और = लपट, ताप, ज्वाला ॥ झालरति जाति= नए नए डाल और पाँ से संपन्न होती जाती है । ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका के , अथवा नायिका से नायक के, प्रेम के प्रति दिन बढ़ने का वर्णन करती है। १. मन (४, ५ )। २. आरसी (४ )। ३. कुम्हिलाई (२ )। ४ खिन खिन (४ ), छिन छिन (५ )। ५ जाह (२ )।