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बिहारी-सतसई
८०
 

तृतीय शतक

चकी जकी-सी ह्वै रही बूझैं बोलति नीठि।
कहूँ डीठि लागी लगी कै काहू की डीठि॥२०१॥

अन्वय—चकी जकी-सी ह्वै रही बूझैं नीठि बोलति। कहूँ डोठि लागी कै काहू की डीठि लगी।

चकी=चकित, आश्चर्यित। जकी=स्तंभित, किंकर्त्तव्यविमूढ। नीठि=कठिनता से, मुश्किल से। कहूँ=कहीं, किसी जगह। कै=या। काहू=किसी की।

आश्चर्यित और स्तंभित-सी हो रही है। पूछने पर भी मुश्किल से बोलती है। (मालूम होता है) इसकी नजर कहीं जा लगी है या किसी और ही की नजर इसे लग गई है—या तो यह स्वयं किसीके प्रेम के फंदे में फँसी है, या किसीने इसे फँसा लिया है।

पिय कैं ध्यान गही गही रही वही ह्वै नारि।
आपु आपुही आरसी लखि रीझति रिझवारि॥२०२॥

अन्वय—पिय कैं ध्यान गही गही नारि वही ह्वै रही। रिझवारि आपुही आपु आरसी लखि रीझति।

गही-गही=पकड़े। आरसी=आईना। आपु आपु ही=अपने-आप। रिझवारि= मुग्धकारिणी।

प्रीतम के ध्यान में तल्लीन रहते-रहते मायिका वही हो रही—उसे स्वयं प्रीतम होने का भान हो गया। (अतएव) वह रिझानेवाली आप ही आरसी देखती और अपने-आपपर ही रीझती है—अपने-आपको प्रीतम और अपने प्रतिबिम्ब को अपनी मूर्ति समझकर देखती और मुग्ध होती है।

ह्याँ ते ह्वाँ ह्वाँ ते इहाँ नेकौ धरति न धीर।
निसि-दिन डाढ़ी-सी फिरति बाढ़ी-गाढ़ी पीर॥२०३॥

अन्वय—ह्याँ ते ह्वाँ ह्वाँ ते इहाँ नेकौ धीर न धरति। गाढी पीर बाढ़ी निसि-दिन डाढ़ी-सी फिरति।