हाँ=यहाँ। ते=से। ह्वाँ=वहाँ। नेकौ=जरा भी। डाढ़ी=एक गानेवाली जाति, जो सदा गाँवों में नाच-नाचकर बधाई गाया करती है; पँवरिया। डाढ़ी=दग्ध, जला हुआ। कहीं ढाढ़ी भी पाठ है।
यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ (आती-जाती रहती है)। जरा भी धैर्य नहीं धरती। कठिन पीड़ा बढ़ गई है (जिस कारण) रात-दिन पँवरियों के समान (या जली हुई-सी इतस्ततः) घूमती रहती है।
समरस समर सकोच बस बिबस न ठिकु ठहराइ।
फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति जाइ॥२०४
अन्वय—समरस समर सकोच बस बिबस ठिकु न ठहराइ। फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति आइ।
समरस=समान रस, समान भाव। समर=स्मर= कामदेव। ठिकु ठहराइ=ठीक ठहरना, स्थिर रहना। उझकति=उचक-उचककर देखती है। दुरति=छिपती है।
समान भाव से कामदेव और लज्जा के वश में (पड़ी है) विवश होकर कहीं भी स्थिर नहीं रह सकती। बार-बार उझक-उझककर देखती है, फिर छिप जाती है और छिप-छिपकर उझकती जाती है—अपने आभूषणों को बजाती जाती है।
उरु उरझयौ चित-चोर सौं गुरु गुरुजन की लाज।
चढ़ैं हिंडोरै सैं हियैं कियैं बनै गृहकाज॥२०५॥
अन्वय—उरु चितचोर सौं उरझ्यौ, गुरुजन की लाज गुरु। हिंडोरै चढ़ै हियैं सैं गृहकाज कियैं बनै।
उर=हृदय। गुरु=भारी। गुरुजन=बड़े-बूढ़े।
हृदय (तो) चितचोर से उलझा हुआ है और गुरुजनों की लज्जा भी भारी है; (अतएव) हिंडोले पर चढ़े हृदय से—दुतरफा खिंचे हुए मन से—घर का काम करते ही बनता है।
सखी सिखावति मान-बिधि सैननि बरजति बाल।
हरुए कहि मो हीय मैं सदा बिहारीलाल॥२०६॥