८१ सटीक : बेनीपुरी हाँ = यहाँ । ते=से । हाँ-वहाँ । नेकौ =जरा भी । डादी=एक गानेवाली जाति, जो सदा गाँवों में नाच-नाचकर बधाई गाया करती है; पँवरिया । डाढ़ी =दग्ध, जला हुआ । कहीं ढाढ़ी भी पाठ है। यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ (आती-जाती रहती है)। जरा भी धैर्य नहीं धरती । कठिन पीड़ा बढ़ गई है (जिस कारण ) रात-दिन पँवरियों के समान (या जली हुई-सी इतस्ततः) घूमती रहती है। समरस समर सकोच बस बिबस न ठिकु ठहराइ । फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उभकति जाइ ॥२०४॥ अन्वय-समरस समर सकोच बस बिबस ठिकु न ठहराइ । फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति आइ । समरस =समान रस, समान भाव । समर =स्मर = कामदेव । ठिकु ठहराइ = ठीक ठहरना, स्थिर रहना । उझकति = उचक-उचककर देखती है । दुरति=छिपती है। समान भाव से कामदेव और न जा के वश में (पड़ी है) विवश होकर कहीं भी स्थिर नहीं रह सकती। बार-बार उझक-उझककर देखती है, फिर छिप जाती है और छिप-छिपकर उझकती जाती है-अपने आभूषणों को बजाती जाती है। उऊ उरभयौ चित-चोर सौं गुरु गुरुजन की लाज । चढ़े हिंडोरै मैं हिये कियें वनै गृहकाज ।। २०५ ।। अन्वय -उरु चितचोर सौं उरझ्यौ, गुरुजन की लाज गुरु । हिंडोरे चढ़े हिये मैं गृहकाज उर = हृदय । गुरु =भारी। गुरुजन = बड़े-बूढ़े। हृदय ( तो) चितचोर से उलझा हुआ है और गुरुजनों की लजा मी मारी है; ( अतएव ) हिंडोले पर चढ़े हृदय से-दुतरफा खिंचे हुए मन से- घर का काम करते ही बनता है। सखी मिखावति मान-बिधि सैननि बरजति बाल । हमए कहि मो हीय मैं सदा विहारीलाल ।। २०६॥ ६ . किय बने ।