पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/९९

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सटीक : बेनीपुरी
 

अन्वय—इततैं उत उततैं इतैं छिनु कहूँ न ठहराति। जक न परति चकरी भई फिरि आवति फिरि जाति।

कल, चैन। फिरि=पुनः। चकरी=एक खिलौना, फिरकी।

इधर-से-उधर और उधर-से-इधर (आती जाती रहती है)। एक क्षण भी कहीं नहीं ठहरती। (उसे) कल नहीं पड़ती। चकरी की तरह पुनः आती और पुनः जाती है।

तजी संक सकुचति न चित बोलति बाकु कुबाकु।
दिन-छिनदा छाकी रहति छुटतु न छिन छवि छाकु॥१९९॥

अन्वय—संक तजी चित सकुचति न, बाकु कुबाकु बोलति। दिन-छिनदा छाकी रहति छिनु छबि छाकु न छुटतु।

बाकु कुबाकु=सुवाच्य कुवाच्य, अंटसंट। छिनदा=रात। छाकी रहति=नशे में मस्त रहती है। छिनु=क्षण-भर के लिए। छवि=सौंदर्य। छाकु=नशा, मदिरा।

डर छोड़ दिया। चित्त में लजाती भी नहीं। अंटसंट बोलती है। दिन-रात नशे में चूर रहती है। एक क्षण भी सौंदर्य (रूप-मदिरा) का नशा नहीं उतरता।

ढरे ढार तेहीं ढरत दूजै ढार ढरैं न।
क्यौं हूँ आनन आन सौं नैना लागत नै न॥
२००॥

अन्वय—ढार ढरे तेहीं ढरत दूजै ढार न ढरैं। क्यौं हूँ आन सौं आनन नैना नै न लागत।

ढार=ढालू जमीन। आनन=मुख। आन=दूसरा। नै=झुककर।

(जिस) ढार पर ढरे हैं—उसी ओर ढरते हैं, दूसरी ढार पर नहीं ढरते— जिस ढालू जमीन की ओर लुढ़के हैं, उसी ओर लुढ़केंगे, दूसरी ओर नहीं। किसी भी प्रकार दूसरे के मुख से (मेरे) नयन झुककर नहीं लग सकते—दूसरे के मुख को नहीं देख सकते।

नोट—'प्रीतम' ने इसका उर्दू-अनुवाद यों किया है—

ढले ही ढाल को तजकर किसी साँचे नहीं ढलते।
ये नैना आन आनन पर किसी सूरत नहीं चलते॥