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बिहारी-सतसई
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अन्वय—सखी मान-विधि सिखावति, बाल सैननि बरजति। हरुए कहि मो हीय मैं सदा बिहारीलाल।

मान-बिधि=मान करने की रीति। हरुए=धीरे-धीरे।

सखी मान करने की रीति सिखलाती है, (तो) बाला (नायिका) इशारे से उसे मना करती है कि (ये मान की बातें) धीरे-धीरे कह; (क्योंकि) मेरे मन में सदा बिहारीलाल वास करते हैं, (ऐसा न हो कि वे कहीं सुन लें और रूठ जायँ!)

नोट—इसी भाव का एक श्लोक 'अमरुक शतक' में यों है—

मुग्धे मुग्धतयैव नेतुमखिलः कालः किमारभ्यते।
मानं धत्स्व धृतिं दधान ऋजुतां दूरि कुरु प्रेयसि॥
सख्येवं प्रतिबोधिता प्रतिवचस्तामाह भीतानना।
नीचैःशंस हृदि स्थितोहि ननु मे प्राणेश्वरः श्रोष्यति॥

उर लीनै अति चटपटी सुनि मुरली धुनि धाइ।
हौं हुलसी निकसी सु तौ गयौ हूल-सी लाइ॥२०७॥

अन्वय—उर अति चटपटी लीनै मुरली धुनि सुनि धाइ। हौं हुलसी निकसी सु तौ हूल-सी लाइ गयौ।

चटपटी=व्याकुलता। धाइ=दौड़कर। हौं=मैं। हुलसी=उल्लास से भरकर। सु तौ=सो तो, वह तो। गयौ=गया। हूल-सी लाइ=बरछी-सी चुभोकर।

हृदय में अत्यंत व्याकुलता फैल गई। मुरली की ध्वनि सुनते ही दौड़कर (ज्यों ही) मैं उमंग से भरी बाहर निकली कि वह (मेरे हृदय में) बरछी चुभोकर चल दिया।

जौ तब होत दिखादिखी भई अमी इक आँकु।
लगै तिरीछी डीठि अब ह्वै बीछी को डाँकु॥२०८॥

अन्वय—तब दिखादिखी होत जौ इक आँकु अमी भई। तिरीछी डीठि अब बीछी कौ डाँकु ह्वै लगै।