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सटीक : बेनीपुरी
 

गुड़ी=गुड्डी, पतंग। अँगना=स्त्री। अँगना=आँगन। माँह=में। बौरी=पगली। लौं= समान। छबीली=सुन्दरी।

प्रीतम की गुड्डी उड़ती हुई देखकर (वह) सुन्दरी स्त्री अपने आँगन में पगली-सी दौड़ती फिरती है और (आँगन में पड़नेवाली उस गुड्डी की) छाया को छूती फिरती है।

नोट—गुड्डी की छाया के स्पर्श में ही प्रीतम के अंगस्पर्श का आनन्दानुभव करती है; क्योंकि गुड्डी का सम्बन्ध प्रीतम के कर-कमलों से है। इस दोहे पर कृष्ण कवि ने यों टीका जड़ी है—

नन्दलला नवनागरि पै निज रूप दिखाइ ठगोरी की नाई।
बाहर जात बनै गृह ते न बिलोकिबे को अति ही अकुलाई॥
प्यारे के चंग इते में उड़ी लखि मोद भरी निज आँगन आई।
होत गुड़ी की जितै जित छाँह तितै तित छूवै को डोलति धाई॥

उनकौ हितु उनहीं बनै कोऊ करौ अनेकु।
फिरत काक-गोलकु भयौ दुहूँ देह ज्यौ एकु॥२१४॥

अन्वय—उनको हित उनहीं बनै कोऊ अनेकु करै, दुहुँ देह एकु ज्यौ काक-गोलकु भयौ फिरतु।

हित=प्रीति। काक-गोलकु=कौए के नेत्रों के गढ़े। ज्यौ=जीव, प्राण। दुहुँ=दोनों।

उनकी प्रीति उन्हींसे सधती है—(इसलिए दोनों अभिन्न रहेंगे ही)— कोई हजार (निंदा) क्यों न करे। दोनों की देह में एक ही प्राण कौए के (दोनों) गोलक (के एक ही नेत्र) की तरह संचरण करता है।

नोट—किंवदन्ती है कि कौए के दोनों गोलकों में एक ही नेत्र होता है, जो दोनों ओर आता-जाता रहता है। इसीलिए देखने के समय कौआ सिर को इधर-उधर घुमाता है।

करतु जातु जेती कटनि बढि रस-सरिता-सोतु।
आलबाल उर प्रेम-तरु तितौ तितौ दृढ़ होतु॥२१५॥