पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११५
सटीक : बेनीपुरी
 

ज्वर आपके 'रस' (औषध) से जाय तो जाय (नहीं तो कोई दूसरा उपाय नहीं।)

तूँ रहि हौं ही सखि लखौं चढ़ि न अटा बलि बाल।
सबही विनु ससि ही उदै दीजतु अरघु अकाल॥२८९॥

अन्वय—सखि तूँ रहि हौं ही लखौं बाल बलि अटा न चढ़ि। सबही बिनु ससि उदै ही अकाल अरघु दीजतु।

हौं=मैं। अटा=अटारी, कोठा। बलि =बलैया लेना। बाल=बाला, नायिका। अरघु=अर्घ्य। अकाल=असमय, बेवक्त।

सखि! तू रह, मैं ही देखती हूँ। बाले! मैं बलैया लेती हूँ, तू कोठे पर न चढ़। (नहीं तो कोठे पर तुम्हारा मुख देख उसे चन्द्रमा समझ) सभी बिना चन्द्रमा के उदय हुए ही, असमय में ही, अर्घ्य देने लगेंगे।

नोट—इसी भाव का एक श्लोक महाकवि कालिदास के श्रृंगारतिलक में है, जिसमें चंद्रानना नायिका को ग्रहण-काल में झटपट घर में घुसने को कहा गया है। कारण, कहीं उसे पूर्णचन्द्र समझकर राहु ग्रस न ले—झटिति प्रविश गेहे मा बहिस्तिष्ठ कान्ते, ग्रहणसमय बेला वर्त्तते शीतरश्मेः; तवमुखमकलंकं वीक्ष्य नूनं स राहुः, असति तब मुखेन्दुं पूर्णचन्द्रं विहाय।

दियौ अरघु नीचौं चलौ संकटु भानैं जाइ।
मुचिती ह्वै औरौ सबै ससिहिं बिलोकैं आइ॥२९०॥

अन्वय—अरघु दियौ नीचौं चलौ, जाइ संकटु मानैं औरौ सबै सुचिती ह्वै ससिहिं आइ बिलोकैं।

संकटु=संकट-चतुर्थी का व्रत। भानैं=तोड़ें। सुचिती ह्वै=सुचित (स्थिरचित्त) होकर, द्विधा को छोड़कर। ससिहिं=चन्द्रमा को। बिलोकैं=देखें।

अर्घ्य दे चुकी, (अब) नीचे चलो। चजकर संकट चौथ का व्रत तोड़ें— संकट-चतुर्थी के व्रत का पारण करें। (ताकि) अन्य सब (स्त्रियाँ) भी सुचित होकर—दुबिधा छोड़कर—चन्द्रमा को पाकर देखें! (क्यों कि कोठे पर