पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१७७

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सटीक : बेनीपुरी
 

अन्वय—हरिराइ सदन सदन के फिरन की सद न छुटै रुचै तितै बिहरत फिरौ आइ उरु कत बिदरत।

सदन = घर। सद =आदत। हरिराइ = श्रीकृष्णचन्द्र। रुचै = भावे, नीक लगे, अच्छा जँचे। तितै = वहाँ। बिहरत फिरौ = मौज करते फिरो। बिदरत = विदीर्ण करते हो। उरु = हृदय। आइ = आकर।

हे कृष्णचन्द्र (तुम्हारी) घर-घर फिरने की आदत नहीं छूटती? खैर, जहाँ मन भावे, वहाँ बिहरते फिरो। (किन्तु) मेरे पास भाकर (मेरी) छाती क्यों विदीर्ण करते हो? (तुम्हें देख और तुम्हारी करतून याद कर मेरी छाती फटने लगती है।)

पट कै ढिग कत ढाँपियत सोभित सुभग सुबेखु।
हद रद-छद छबि देत यह सद रद-छद की रेखु॥३९०॥

अन्वय—पट ढिग कै कत ढाँपियत सुभग सुबेखु सोभित सद रद छद की रेनु यह रहछद हद छवि देत।

पट = कपड़ा। कै = करके। ढिग = निकट। सुबेखु = सुन्दर रूप से। रद-छद = ओठों। छबि = शोभा। सद = सद्यःकाल का, तुरत का। रद-छद = ओठों पर दाँत का घाव। रेख = रेखा, लकीर।

कपड़े निकट करके क्यों ढक रहे हो? सुभग और सुन्दर रूप से तो शोभ रहा है! दाँतों के घाव की ताजी रेखा से यह अधर बेहद शोभा दे रहा है— तुरत ही किसी स्त्री ने तुम्हारे अधर का चुम्बन करते समय दाँत गड़ाये हैं, जिसका चिह्न अत्यन्त शोभ रहा है।

मोहूँ सौं बातनु लगैं लगी जीभ जिहि नाँइ।
सोई लै उर लाइयै लाल लागियतु पाँइ॥३९१॥

अन्वय—मोहूँ सौं बातनु लगें जीभ जिहि नाँइ लगी, सोई लै उर लाइयै लाल पाँइ लागियतु।

मोहूँ सौं = मुझसे भी। नाँइ = नाम। उर = हृदय।

मुझसे भी बात करते समय (तुम्हारी) जीभ जिसके नाम पर लगी है—