बिना आसक्ति के ही जो अटकते फिरते हो—जिस-तिस से उलझते फिरते हो—सो, हे रसिक! क्या तुम्हें रस का कुछ विचार नहीं है? नित्य ही जहाँ-तहाँ प्रेम करके, हे लाल! तुम मन में क्यों लजा रहे हो? (तुम्हारी यह घर-घर प्रीति करते चलने की आदत देखकर मुझे भी लज्जा आती है।)
जो तिय तुम मनभावती राखी हियै बसाइ।
मोहि झुकावति दृगनु ह्वै वहिई उझकति आइ॥४१७॥
अन्वय—जो तिय तुम मनभावती हियै बसाइ राखी, वहिई दृगनु ह्वै आइ उझकति मोहि झुकावति।
तुम = तुम्हारी। मनभावती =प्रियतमा। झुकावति = चिढ़ाती है। दृगनु ह्वै = आँखों की राह से। वहिई = वही। उझकति = झाँकती है।
जो स्त्री तुम्हारी परम प्यारी है (और जिसे तुमने) हृदय में बसा रक्खा है, वही (तुम्हारी) आँखों की राह आ (मेरी तरफ) झाँक-झाँककर मुझे चिढ़ाती है।
नोट—नायिका अपनी ही सुन्दर मूर्त्ति को नायक की उज्ज्वल आँखों में प्रतिबिम्बित देख और उसे नायक के हृदय में बसीं हुई अपनी सौत समझकर ऐसा कहती है।
मोहि करत कत बावरौ करैं दुराउ दुरै न।
कहे देत रँग राति के रँग निचुरत-से नैन॥४१८॥
अन्वय—मोहि कत बावरी करत, दुराउ करै दुरै न, रँग निचुरत-से नैन राति के रँग कहे देत।
बावरी = पगली। दुराव = छिपाव। दुरै न = नहीं छिपता। राति के रँग = रात्रि में किये गये भोग-विलास।
मुझे क्यों पगली बना रहे हो? छिपाने से तो छिप नहीं सकता। ये तुम्हारे रंग-निचुड़ते-हुए-से नेत्र—लाल रंग में शराबोर नेत्र—रात के (सारे) रंग कहे देते हैं (कि कहीं रात-भर जगकर तुमने केलि-रंग किया है।)
पट सौं पोंछि परी करौ खरी भयानक भेख।
नागिनि ह्वै लागति दृगनु नागबेलि रँग रेख॥४१९॥