पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१८८

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विहारी-सतसई. १६८ 9 . विना भासक्ति केही जो भटकते फिरते हो-जिस-तिस से उलझते फिरते हो-सो, हे रसिक ! क्या तुम्हें रस का कुछ विचार नहीं है ? नित्य ही जहाँ- तहाँ प्रेम करके, हे लाल ! तुम मन में क्यों नजा रहे हो ? (तुम्हारी यह घर- घर प्रीति करते चलने की आदत देखकर मुझे भी लज्जा आती है।) जो तिय तुम मनभावती राखी हिये बसाइ । मोहि मुकावति दृगनु है वहिई उझकति आइ ।। ४१७ ।। अन्वय-जो तिय तुम मनभावती हियै बसाइ राखी, वहिई दृगनु है आइ उझकति मोहि मुकावति । तुम = तुम्हारी। मनभावती =प्रियतमा । झुकावति =चिढ़ाती है । दृगनु है = आँखों की राह से । पहिई वही । उझकति = झाँकती है। जो स्त्री तुम्हारी परम प्यारी है (और जिसे तुमने) हृदय में बसा रक्खा है, वही (तुम्हारी) आँखों की राह पा ( मेरी तरफ) झाँक-झाँककर मुझे चिढ़ाती है। नोट-नायिका अपनी ही सुन्दर मूर्ति को नायक की उज्ज्वल आँखों में प्रतिबिम्बित देख और उसे नायक के हृदय में बसी हुई अपनी सौत समझकर ऐसा कहती है। मोहि करत कत बावरौ करें दुराउ दुरै न । कहे देत रँग राति के रँग निचुरत-से नैन ॥ ४१८ ॥ अन्वय-मोहि कत बावरी करत, दुराउ कर दुरै न, रंग निचुरत-से नैन राति के रंग कहे देत । बावरी= पगली । दुराव=छिपाव । दुरै न = नहीं छिपता । राति के रंग =रात्रि में किये गये भोग-विलास । मुझे क्यों पगली बना रहे हो? छिपाने से तो छिप नहीं सकता। ये तुम्हारे रंग-निचुड़ते-हुए-से नेत्र-लाल रंग में शराबोर नेत्र-रात के (सारे) रंग कहे देते हैं (कि कहीं रात-भर जगकर तुमने केलि-रंग किया है।) पट सौं पोंछि परी करौ खरी भयानक भेख । नागिनि कै लागति दृगनु नागबेलि रँग रेख ॥ ४१९ ॥