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बिहारी-सतसई
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मुँह में मिठास है—बातें मीठी हैं, आँखें चिकनी हैं—स्नेह-स्निग्ध हैं, और भौंहें भी स्वभावतः सीधी हैं; तो भी तुम्हें अत्यन्त आदर करते देखकर क्षण-क्षण (मेरा) हृदय बहुत डरता है (कि कहीं तुम रुष्ट तो नहीं हो—यह आदर-भाव बनावटी तो नहीं है!)

पति रितु औगुन गुन बढ़तु मानु माह कौ सीत।
जातु कठिन ह्वै अति मृदौ रवनी-मन-नवनीतु॥४२८॥

अन्वय—मानु माह कौ सीत पति औगुन रितु गुन बढ़तु। अति मृदौ रवनी-मन-नवनीतु कठिन ह्वै जातु।

माह = माघ। मृदौ = कोमल भी। नवनीत = घी, नैनू , मक्खन।

मान और माघ के जाड़े में (पूरी समता है। मान में) पति का अवगुण बढ़ता है—पति के दोष दिखलाई पड़ते हैं (और माघ के जाड़े में) ऋतु का गुण बढ़ता है—शीत का वेग बढ़ता है। (मान में) अत्यन्त कोमल रमणी का चित्त भी कठोर हो जाता है, और (माघ में) अत्यन्त कोमल मक्खन भी कठोर हो जाता है।

नोट—पति अवगुन रितु के गुनन, बढ़त मान अरु सीत।
होत मान ते मन कठिन, सीत कठिन नवनीत॥—लल्लूलाल

कपट सतर भौहें करीं मुख अनखौंहैं बैन।
सहज हँसौंहैं जानिकै सौहैं करति न नैन॥४२९॥

अन्वय—कपट भौंहैं सतर करीं भुख अनखौंहैं बैंन, नैन सहज हँसौंहैं जानिकै सौंहैं न करति।

सतर = तिरछा। अनखौंहैं = क्रोधयुक्त। सहज = स्वभावतः। हँसौंहैं = हँसोड़, विनोदशील, चिर-प्रसन्न, प्रफुल्ल। सौंहैं = सामने।

छल से भौंहों को तिरछा कर लिया, और मुख से क्रोधयुक्त वचन (कहने लगी); किन्तु अपने नेत्रों को स्वभावतः हँसोड़ जानकर (नायक के) सम्मुख नहीं करती। (इस शंका से कि कहीं ये आँखें हँसकर यह बनावटी मान बिगाड़ न दें!)