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बिहारी-सतसई
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मरिबे कौ = मरने का। ककै = करके। समुहैं = सम्मुख। ससी = शशि = चन्द्रमा। सरसिज = कमल। मुरभि-समीर = सुगंधित पवन।

विरह की पीड़ा बढ़ने पर मरने का साहस करके (वह उन्मादिन बाला) चन्द्रमा, कमन और पवन के सम्मुख होकर दौड़ती है। (यद्यपि चन्द्रमा, कमल और पवन शीतलता देनेवाले हैं, तथापि विरह में उसे अत्यन्त तापपूर्ण जान पड़ते हैं, जिससे वह उनके सम्मुख दौड़ती है कि वे मुझे जला डालें।)

ध्यान आनि ढिग प्रानपति रहति मुदित दिन-राति।
पलकु कँपति पुलकति पलकु पलकु पसीजति जाति॥४९०॥

अन्वय—प्रानपति ध्यान ढिग आनि दिन-राति मुदित रहति पलकु कँपति पलकु पुलकति पलकु पसीजति जाति।

आनि = लाकर। ढिग = निकट। मुदित = प्रसन्न। पलकु = पल+ एकु = एक पल या क्षण में।

(परदेश गये हुए) प्राणपति को ध्यान-द्वारा निकट लाकर—ध्यान में उन्हें अपने निकट बैठा समझकर (वह बाला) दिन-रात प्रसन्न रहती है। क्षण में काँपती है, क्षण में पुलकित होती है, और क्षण में पसीने से तर हो जाती है।

सकै सताइ न बिरहु-तमु निसि दिन सरस सनेह।
रहै वहै लागी दृगनु दीप-सिखा-सी देह॥४९१॥

अन्वय—बिरहु-तमु न सताइ सकै निसि-दिन सनेह सरस, दीप-सिखा-सी देह वहै दृगनु लागी रहै।

बिरह-तम = विरह-रूपी अंधकार। सरस सनेह = (१) प्रेम से शराबोर (२) तेल से भरा हुआ। दीप-सिखा = दिये की लौ।

विरह-रूपी अंधकार (नायक को) नहीं सता सकता, क्योंकि रात-दिन स्नेह से सरस (तेल से परिपूर्ण) दीपक की लौ के समान (उस नायिका की) देह उसकी आँखों से लगी रहती है—उसकी आँखों में बसी रहती है। (जहाँ दीपक की लौ, वहाँ अंधकार कहाँ!)

नोट—जो लोग हिन्दी में 'पुरुष-विरह-वर्णन' का अभाव देखकर दुःखित होते हैं उन्हें यह दोहा याद रखना चाहिए।