हे लाल! तुम्हारे विरह की आग अनुपम और अपरम्पार है। पानी बरसने पर (वर्षा होने पर) भी प्रज्वलित होती है, और झड़ी लगने पर (आँसुओं के गिरने पर) भी उसकी ज्वाला नहीं मिटती।
नोट—विरहिणी बेचारी को वर्षा से अधिक कष्ट होता है!
याकैं उर औरै कछू लगी बिरह की लाइ।
पजरै नीर गुलाब कैं पिय की बात बुझाइ॥५०७॥
अन्वय—याकैं उर कछू औरै बिरह की लाइ लगी, गुलाब कैं नीर पजरै, पिय की बात बुझाइ।
औरै कछू = कुछ विचित्र ही। लाइ = आग। पजरै = प्रज्वलित होना। बात = (१) वचन (२) हवा, अथवा मुँह की सुगंधित साँस।
इसके हृदय में कुछ विचित्र विरह की आग लग गई है, जो गुलाब के पानी से तो प्रज्वलित हो जाती है, और प्रीतम की 'बात' से बुझ जाती है।
नोट—पानी से जलना और हवा से बुझ जाना निस्संदेह विचित्रता है।
मरी डरी कि टरी बिथा कहा खरी चलि चाहि।
रही कराहि-कराहि अति अब मुँहु आहि न आहि॥५०८॥
अन्वय—कहा खरी चलि चाहि मरी डरी कि बिथा टरी, अति कराहि-कराहि रही अब मुँहु आहि न आहि।
खरी = खड़ी। चाहि = देखो। आहि = आह। न आहि = नहीं है।
(हे सखी!) क्या खाड़ी हो, चलकर देखो तो कि वह मर गई है कि डर गई है कि उसकी पीड़ा टल गई (जो वह चुप हो रही है)। अब तक तो वह अत्यन्त कराह रही थी, किन्तु अब मुख में आह भी नहीं है-आह भी नहीं सुन पड़ती है।
कहा भयौ जो बीछुरे मो मनु तो मनु साथ।
उड़ी जाउ कितहूँ गुड़ी तऊ उड़ाइक हाथ॥५०९॥
{{Larger|अन्वय—जो बीछुरे कहा भयौ मो मनु तो मनु साथ। गुड़ी कितहूँ उड़ी जाउ तऊ उड़ाइक हाथ।