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बिहारी-सतसई
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अन्वय—अवधि दुसासन बीरु ऐंचि रह्यौ अंत न लह्यौ, आली बिरहु पंचाली कौ चीरु ज्यौं बाढ़तु।

ऐंचि=खींचना। अंत न लह्यौ=अन्त (छोर) न पाया, पार न पाया। अवधि=वादे का दिन, निश्चित तिथि। आली=सखी। पंचाली=द्रौपदी।

(प्रीतम के आने का) निश्चित समय-रूपी दुःशासन-वीर (विरह-रूपी दीर्घ चीर को) खींचना ही रह गया, किन्तु पार न पाया। अरी सखी! यह विरह द्रौपदी के चीर के समान बढ़ रहा है।

नोट—जिस प्रकार द्रौपदी के चीर को दुःशासन खींचता रह गया और छोर न पा सका, उसी प्रकार प्रीतम के आने का निश्चित दिन प्रिया के विरह को शांत न कर सका। अर्थात् प्रीतम के आने का दिन ज्यों-ज्यों निकट आता है, त्यों-त्यों विरहिणी की व्यथा बढ़ रही है।

बिरह-बिथा-जल परस बिन बसियतु मो मन-ताल।
कछु जानत जलथंभ-विधि दुरजोधन लौं लाल ॥५३५॥

अन्वय—बिरह-बिथा-जल परस बिन मो मन-ताल बसियतु। लाल दुरजोधन लौं कछु जलथंभ-बिधि जानत।

बिथा=व्यथा, दुःख। परस=स्पर्श। ताल=तालाब। लौं=समान।

विरह के दुःख-रूपी जल के स्पर्श बिना मेरे मन-रूपी तालाब में बसते हो—यद्यपि सदा मैं तुम्हें हृदय में धारण किये रहती हूँ, तथापि मेरी हार्दिक व्यथा का तुम अनुभव नहीं करते। (सो मालूम होता है कि) हे लाल! तुम दुर्योधन के समान कुछ जल-स्तम्भन-विधि जानते हो।

नोट—दुर्योधन जलस्तम्भन-विधि जानता था। अगाध जल में घुसकर बैठ रहता था, किन्तु उसपर जल का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था।

सोवत सपनैं स्यामघनु हिलि-मिलि हरत बियोगु।
तबहीं टरि कित हूँ गई नींदौ नींदनु जोगु ॥५३६॥

अन्वय—सोवत सपनैं स्यामधनु हिलि-मिलि बियोगु हरत, तबहीं नींदनु जोगु नींदौ कितहूँ टरि गई।