बिहारी-सतसई २१४ । - - अन्वय-अवधि दुसासन बीरु ऐचि रह्यौ अंत न लयौ, आली विरहु पंचाली कौ चीरु ज्यौं बाढ़तु । ऐंचि - खींचना । अंत न लह्यौ = अन्त (छोर) न पाया, पार न पाया। अवधि = वादे का दिन, निश्चित तिथि । आली = सखी । पंचाली = द्रौपदी । (प्रीतम के आने का) निश्चित समय-रूपी दुःशासन-वीर (विरह-रूपी दीर्घ चीर को ) खींचना ही रह गया, किन्तु पार न पाया । श्ररी सखी! यह विरह द्रौपदी के चीर के समान बढ़ रहा है नोट-जिस प्रकार द्रौपदी के चीर को दुःशासन खींचता रह गया और छोर न पा सका, उसी प्रकार प्रीतम के आने का निश्चित दिन प्रिया के विरह को शांत न कर सका । अर्थात् प्रीतम के आने का दिन ज्यों-ज्यों निकट आता है, त्यो त्यो विहिणी की व्यथा बढ़ रही है। बिरह-बिथा-जल परस बिन बसियतु मो मन-ताल । कछु जानत जलथंभ-विधि दुरजोधन लौं लाल ॥ ५३५ ।। अन्वय बिरह-बिथा-जल परस बिन मो मन-ताल बसियतु । लाल दुरजोधन लौं कछु जलथंभ-बिधि जानत । बिथा = व्यथा, दुःख । परस = स्पर्श । ताल = तालाब । लौं= समान । विरह के दुःख-रूपी जल के स्पर्श विना मेरे मन-रूपी तालाब में बसते हो-यद्यपि सदा मैं तुम्हें हृदय में धारण किये रहती हूँ, तथापि मेरी हार्दिक व्यथा का तुम अनुभव नहीं करते । ( सो मालूम होता है कि ) हे लाल ! तुम दुर्योधन के समान कुछ जल-स्तम्मन-विधि जानते हो। नोट- दुर्योधन जलस्तम्भन-विधि जानता था । अगाध जल में घुसकर बैठ रहता था, किन्तु उसपर जल का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था । सोवत सपनै स्यामघनु हिलि-मिलि हरत बियोगु । तवहीं टरि कित हूँ गई नींदौ नीदनु जोगु ।। ५३६ ।। अन्वय-सोवत सपर्ने स्यामधनु हिलि-मिनि बियोगु हरत, तबहीं नीदनु जोगु नींदौ कितहूँ टरि गई।