अन्वय—प्रानन के ईसु पिउ बरोठे में मिलत रहे, आवत-आवत की सु घरी बिधि की घरी भई।
बरोठे=बाहर को बैठक। प्रानन के ईसु=प्राणेश। सु=सो, वह।
प्राणनाथ प्रीतम (परदेश से आने पर) बाहर की बैठक में ही लोगों से मिल रहे थे। (अतएव) जो एक घड़ी (उन्हें आँगन में) आते-आते बीती, सो घड़ी (नायिका के लिए) ब्रह्मा की घड़ी के समान (लम्बी) हो गई।
नोट—कितने ही युग बीत जाते हैं तब ब्रह्मा की एक घड़ी होती है।
जदपि तेज रौहाल-बल पलकौ लगीन बार।
तौ खैंडौं घर कौ भयौ पैंडों कोस हजार॥५५०॥
अन्वय—जदपि तेज रौहाल-बल पलकौ बार न लगी तौ ग्वैंडौं घर कौ पैंड़ों हजार कोस भयौ।
रौहाल=(फा॰ रहबार) घोड़ा। पलकौ=एक पल की भी। बार=देर। ग्वैडौं=बस्ती के आसपास की भूमि। पैंड़ों=रास्ता।
यद्यपि तेज घोड़े के कारण (नायक के आने में) एक पल-भर की भी देर न हुई, तो भी गोयँड़े से घर तक का रास्ता (उत्कंठिता नायिका को) हजार कोस (सदृश) मालूम हुआ।
नोट—नायिका ने घर की खिड़की से नायक को तेज घोड़े पर चढ़कर विदेश से आते हुए गाँव के गोयँड़े में देखा। उस गोयँड़े से बस्ती के अन्दर अपने घर तक आने में जो थोड़ी-मी देर हुई, वह उसे हजार वर्ष-सी जान पड़ी।
बिछुरैं जिए सँकोच इहिं बोलत बनत न बैन।
दोऊ दौरि लगे हियैं किए निचौंहैं नैन॥५५१॥
अन्वय—बिछुरैं जिए इहिं सँकोच बैन बोलत न बनत, नैन निचौंहैं किए दोऊ दौरि हियैं लगे।
बिछुरे=जुदा हुए। जिए=मन में। निचौंहैं=नीचे की ओर।
(कैसी लज्जा की बात है कि परस्पर इतना प्रेम करने पर भी) हम दोनों बिछुड़ गये—एक दूसरे से अलग-अलग हो गये—फिर भी जीते रहे यह संकोच मन में होने के कारण वचन बोलते (बातें करते) नहीं बना। (तो भी प्रेमावेश