पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२५१

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सटीक : बेनीपुरी
 

हे प्राणनाथ! मुझे बामा, मामा और कामिनी नाम से कहकर पुकारिए। इस वर्षा ऋतु में विदेश जाते हुए भी मुझे प्यारी कहते लज्जा नहीं आती? (यदि मैं सचमुच आपकी 'प्यारी' होती, तो इस वर्षा-ऋतु में मुझे अकेली छोड़कर आप विदेश क्यों जाते?)

उठि ठकुठकु एतौ कहा पावस कैं अभिसार।
जानि परैगी देखियौ दामिनि घन-अँधियार॥५७७॥

अन्वय—उठि पावस कैं अ एतौ ठकुठकु कहा। देखियो घन-अँधियार दामिनि जानि परेगी।

ठकुठकु=झमेला। एतौ=इतना। अभिसार=प्रेमी से मिलने के लिए संकेत-स्थल पर जाना। देखियौ=देख लिये जाने पर भी। दामिनी =बिजली। घन=बादल।

उठो, वर्षा-ऋतु के अभिसार में भी इतना झमेला कैसा—इतनी हिचकिचाहट और सजधज क्यों? देख लिये जाने पर भी बादलों के अंधकार में तुम बिजली जान पड़ोगी—जो तुम्हें देखेंगे भी वे समझेंगे कि बादलों में बिजली चमकती जा रही है।

फिर सुधि दै सुधि द्याइ प्यौ इहिं निरदई निरास।
नई नई बहुरयो दई दई उसासि उसास॥५७८॥

अन्वय—इहिं निरदई निराम फिर सुधि दै प्यो सुधि द्याइ दई बहुस्यौ नई नई उसास उसासि दई।

सुधि दै=होश दिलाकर। सुधि द्याइ=याद दिला दी। बहुर्यौ=फिर। उसास उसासि दई=उसाँसें उभाड़ दीं। उसासि=ऊँची साँस।

इस निर्दय (पावस-ऋतु) ने निराशा में मुझे पुनः होश दिलाकर प्रियतम की याद कर दी। ब्रह्मा ने फिर नई-नई उसाँसें उभाड़ दी हैं (अतः इस अवस्था में तो बेहोश ही रहना अच्छा था।)

घन-घेरा छुटिगौ हरषि चली चहूँ दिसि राह।
कियौ सुचैनौ आइ जगु सरद सूर नरनाह॥५७९॥