पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बिहारी-सतसई
२३२
 

अन्वय—घन-घेरा छुटिगौ हरषि चहूँ दिसि राह चली, सरद सूर नरनाह आइ जगु सुचैनौ कियौ।

घन=मेघ। घेरा=आक्रमणकारी सेना-मण्डल। सुचैनौ=खूब निश्चिंत। सूर=बली। नरनाह=नरनाथ, राजा।

मेघों का घेरा छूट गया। प्रसन्न होकर चारों ओर की राहें चलने लगीं—पथिक आने-जाने लगे। शरद-रूपी बली राजा ने आकर संसार को (उपद्रवों से) खूब निश्चिंत बना दिया। (वर्षा-ऋतु के उपद्रव शान्त हो गये।)

ज्यौं-ज्यौं बढ़ति बिभावरी त्यौं-त्यौं बढ़त अनंत।
ओक-ओक सब लोक-सुख कोक सोक हेमंत॥५८०॥

अन्वय—ज्यौं-ज्यौं बिभावरी बढ़ति त्यौं-त्यौं हेमंत ओक-ओक सब लोक-सुख कोक सोक अनंत बढ़त।

बिभावरी=रात। अनन्त=जिसका अन्त न हो, अपार। ओक=घर। लोक=लोग, जन-समुदाय। कोक=चकवा।

ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जाती है—रात बड़ी होती जाती है, त्यों-त्यों हेमन्त-ऋतु में घर-घर में सब लोगों का सुख और चकवा-चकई का दुःख बेहद बढ़ता जाता है।

नोट—जाड़े की रात बड़ी होने से संयोगी तो सुख लूटते हैं, और चकवा-चकई के मिलने में बहुत देर होती है, जिससे वे दुखी होते हैं; क्योंकि रात में शापवश वे मिल नहीं सकते।

कियौ सबै जगु काम-बस जीते जिते अजेइ।
कुसुम-सरहिं सर-धनुष कर अगहनु गहन न देइ॥५८१॥

अन्वय—सबै जगु काम-बस कियौ, जिते अजेइ जीते, अगहनु कुसुम-सरहिं कर धनुष-सर न गहन देइ।

जिते=जितना। अजेइ=न हारनेवाले, जो जीता न जा सके। कुसुम- सर=जिसका बाण फूल का हो, कामदेव। अगहनु=जाड़े का महीना; अ+गहनु =पकड़ने न देनेवाला; जाड़े के मारे हाथ ऐसे ठिठुर जाते हैं कि कोई