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बिहारी-सतसई
२३४
 

लगत सुभग सीतल किरन निसि-सुख दिन अवगाहि।
महा ससी-भ्रम सूर त्यौं रही चकोरी चाहि॥५८४॥

अन्वय—महा ससी-भ्रम चकोरी सूर त्यौं चाहि रही किरन सीतल सुभग लगत निसि-सुख दिन अवगाहि।

सुभग=सुन्दर। निसि-सुख=रात का सुख। अवगाहि=प्राप्त करना। माह=माघ। सूर=सूर्य। त्यौं=तरफ, ओर। चाहि=देखना।

माघ-महीने में चन्द्रमा के भ्रम से चकोरी सूर्य की ओर देख रही है; (क्योंकि) सूर्य की किरणें भी उसे शीतल और सुन्दर लगती हैं। (इस प्रकार) रात्रि का सुख वह दिन ही में प्राप्त कर रही है।

तपन-तेज तापन-तपति तूल-तुलाई माँह।
सिसिर-सीतु क्यौंहुँ न कटैं बिनु लपटैं तिय नाँह॥५८५॥

अन्वय—तिय नाँह लपटैं बिनु तपन-तेज तापन-तपति तूल तुलाई माँह सिसिर-सीतु क्यौंहुँ न कटैं।

तपन=सूर्य। तेज=किरण, गर्मी। तापन-तपति=आग को गर्मी। तूल- तुलाई=रुईदार (खूब मुलायम) दुलाई। माँह=में। सिसिर-सीतु=पूस-माघ की सर्दी। क्यौंहुँ=किसी प्रकार से भी। तिय=स्त्री। नाँह=पति।

स्त्री पति से लिपटे बिना सूर्य की किरणें, आग की गर्मी, और रुईदार दुलाई से जाड़े की सर्दी किसी प्रकार भी नहीं मिटा सकती—(जाड़ा तो तभी दूर होगा जब प्यारे को छाती से लगाकर गरमायेगी।)

नोट—"ग्वाल कवि कहैं मृगमद के धुकाय धूम ओढ़ि-ओढ़ि छार भार आगहू छपी-सी जाइ। छाके सुरा-सीसी हू न सी-सी पैं मिटेगी कभू जोलौं उकसी-सी छाती छाती सों न मीसी जाइ॥"

रहि न सकी सब जगत मैं सिसिर-सीत कैं त्रास।
गरम भाजि गढ़वै भई तिय-कुच अचल मवास॥५८६॥

अन्वय—सिसिर-सीत कैं त्रास गरम सब जगत मैं न रहि सकी, भाजि तिय-कुच अचल मवास गढ़वै भई।