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बिहारी-सतसई
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चले जाओ, यहाँ हाथी का व्यापार कौन करता है? नहीं जानते कि इस गाँव में केवल धोबी, बेलदार और कुम्हार बसते हैं (जो गदहे पालते हैं)?

नोट—पश्चिम में कुम्हार और बेलदार भी गदहे पालते हैं।


करि फुलेल कौ आचमन मीठौ कहत सराहि।
रे गंधी मति-अंध तूँ अंतर दिखावत काहि॥६७६॥

अन्वय—फुलेल कौ आचमन करि सराहि मीठौ कहत, रे मति-अंध गंधी तूँ काहि अतर दिखावत?

फुलेल=फूलों के रस से बसा हुआ तेल। आचमन करि=पीकर। गंधी=इत्र बेचनेवाला अत्तार। मति-अंध=बेवकूफ। अंतर=इत्र।

(यहाँ तो) फुलेल का आचमन कर उसे सराहता और मीठा कहता है! रे बेवकूफ इत्रफरोश, तू यहाँ किसको इत्र दिखा रहा है? (वह तो यह भी नहीं जानता कि फुलेल लगाने की चीज है या पीने की, फिर वह इत्र की कद्र क्या जानेगा?)


विषम वृषादित की तृषा जिये मतीरनु सोधि।
अमित अपार अगाध जलु मारौ मूढ़ पयोधि॥६७७॥

अन्वय—विषम वृषादित की तृषा मतीरनु सोधि जिये, मारौ अमित अपार अगाध जलु पयोधि मूढ़।

विषम=प्रचंड। वृषादित=(वृषा + आदित्य) वृष-राशि का सूर्य, जो अतिशय प्रचंड होता है; जेठ की तीखी धूप। तृषा=प्यास। मतीरनु=तरबूजों। सोधि=खोजकर। अगाध=अथाह। मारौ=मारवाड़ (राजपुताने की मरुभूमि)। मूढ़=मूर्ख (यहाँ 'बेकार')। पयोधि=समुद्र।

जेठ की कड़ी धूप की प्यास से (व्याकुल होने पर) तरबूजों को खोजकर प्राण बचाया। इस मारवाड़ की मरुभूमि में अत्यन्त विस्तृत और अगाध जलवाला समुद्र किस काम का?—बेकार है।


जम-करि-मुँह-तरहरि पर्यौ इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ॥६७८॥