पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२९२

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बिहारी-सतसई २७२ -मन वश में नहीं है, तो यह सारा नाच (आडम्बर) वृथा है, (क्योंकि) राम सत्य से ही प्रसन्न होते हैं (आडंबरों से नहीं)। नोट-“माला तो कर में फिरै, जीभ फिर मुख माँहि । मनुआँ तो दस दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाँहि ॥-कबीरदास यह जग काँचो काँच-से मैं समझ्यौ निरधार । प्रतिबिम्बित लखियै जहाँ एकै रूप अपार ।। ६८१ ।। अन्वय-मैं निरधार समझ्यौ यह काँचो जग काँच-से जहाँ एकै अपार रूप प्रतिबिम्बित लखिये। काँचो = कच्चा, क्षणभंगुर । निरधार =निश्चित रूप से । यह मैंने निश्चित रूप से जान लिया कि यह क्षणभंगुर संसार काँच के समान है, जहाँ एक वही (ईश्वर का) अपार रूप (समी वस्तुओं में) प्रतिबिम्बित हो रहा है-झलक रहा है। बुधि अनुमान प्रमान सुति किऐं नीठि ठहराइ । सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहि जाइ॥ ६८२ ॥ अन्वय-कटि ब्रह्म की पर सूछम अलख, लखी नहि जाइ, बुधि अनुमान, स्रुति प्रमान किऐ नीठि ठहराइ । स्रुति = श्रुति = वेद, कान । नीठि = मुश्किल से । ठहराइ = निश्चित होती है। सूछम = सूक्ष्म, बारीक । अलख = जो देखा न जा सके । पर= भाँति, समान। नायिका की कटि ब्रह्म की भाँति अत्यन्त सूक्ष्म है, अलख है, वह देखी नहीं जा सकती-समझ में नहीं आ सकती । बुद्धि द्वारा अनुमान करने और वेदों के प्रमाण मानने (कानों से सुनने ) पर मी वह मुश्किल से समझ पड़ती है । तौ लगु या मन-सदन मैं हरि आवै किहि बाट । बिकट जटे जौ लगु निपट खुलै न कपट-कपाट ।। ६८३॥ अन्वय-तौ लगु या मन-सदन मैं हरि किहिं बाट आवै, जौ लगु निपट बिकट जटे कपट-कपाट न खुलें।