हैं—मन वश में नहीं है, तो यह सारा नाच (आडम्बर) वृथा है, (क्योंकि) राम सत्य से ही प्रसन्न होते हैं (आडंबरों से नहीं)।
नोट—"माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माँहि।
मनुआँ तो दस दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाँहि॥—कबीरदास
यह जग काँचो काँच-से मैं समभयौ निरधार। प्रतिबिम्बित लखियै जहाँ एकै रूप अपार॥६८१॥
अन्वय—मैं निरधार समझयौ यह काँचो जग काँच-से जहाँ एकै अपार रूप प्रतिबिम्बित लखियै।
काँचो=कच्चा, क्षणभंगुर। निरधार=निश्चित रूप से।
यह मैंने निश्चित रूप से जान लिया कि यह क्षणभंगुर संसार काँच के समान है, जहाँ एक वही (ईश्वर का) अपार रूप (सभी वस्तुओं में) प्रतिबिम्बित हो रहा है—झलक रहा है।
बुधि अनुमान प्रमान स्रुति किऐं नीठि ठहराइ।
सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहि जाइ॥६८२॥
अन्वय—कटि ब्रह्म की पर सूछम अलख, लखी नहि जाइ, बुधि अनुमान, स्रुति प्रमान किऐं नीठि ठहराइ।
स्रुति=श्रुति=वेद, कान। नीठि=मुश्किल से। ठहराइ=निश्चित होती है। सूछम=सूक्ष्म, बारीक। अलख=जो देखा न जा सके। पर=भाँति, समान।
नायिका की कटि ब्रह्म की भाँति अत्यन्त सूक्ष्म है, अलख है, वह देखी नहीं जा सकती—समझ में नहीं आ सकती। बुद्धि द्वारा अनुमान करने और वेदों के प्रमाण मानने (कानों से सुनने) पर भी वह मुश्किल से समझ पड़ती है।
तौ लगु या मन-सदन मैं हरि आवैं किहिं बाट।
बिकट जटे जौ लगु निपट खुलैं न कपट-कपाट॥६८३॥
अन्वय—तौ लगु या मन-सदन मैं हरि किहिं बाट आवैं, जौ लगु निपट बिकट जटे कपट-कपाट न खुलैं।